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आत्मसिद्धि।
मत-पक्षको–कुलधर्मके पुष्ट करने आदि-रूप भ्रांतिको छोड़ कर केवल आत्म-हितके लिए उन्हें पढ़ना चाहिए।
रोके जीव खछंद तो, पामे अवश्य मोक्ष । पाम्या एम अनंत छे, भाख्युं जिन निर्दोष ॥१५॥
रुन्धीत जीवः स्वातन्त्र्यं प्राप्नुयान्मुक्तिमेव तु।
एवमनन्ताः संप्राप्ता उक्तमेतजिनेश्वरैः ॥ १५ ॥ अर्थात्-आत्मा अनादिकालसे अपनी समझको अच्छा जान कर अपनी ही इच्छाके अनुसार चलता आ रहा है। इस चलनेको 'स्वच्छन्दता' कहते हैं। यदि वह इस स्वच्छन्दताके रोकनेका यत्न करे तो अवश्य मोक्षको प्राप्त हो सकता है । और वीतराग जिन प्रभुने, जिनमें राग-द्वेषअज्ञान आदि एक भी दोषका नाम-निशान नहीं है, यह कहा है कि भूत-कालमें इसी मार्गसे अनन्त जीव मोक्षको प्राप्त हुए हैं। प्रलक्ष सद्गुरुयोगथी, खछंद् ते रोकाय। अन्य उपाय को थकी, प्राये बमणो थाय ॥१६॥ प्रत्यक्षसद्गुरुयोगात् स्वातन्त्र्यं रुध्यते तकत् ।
अन्यैस्तु साधनोपायैः प्रायो द्विगुणमेव स्यात् ॥१६ अर्थात्-खच्छन्दता सद्गुरुके समागमसे रोकी जाती है और अपनी इच्छाके अनुसार चलनेसे तो वह बहुतसे उपाय करने पर भी उल्टी दुगुनी बढ़ जाती है।
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