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श्रीमद् राजचन्द्रप्रणीत
विना सद्गुरुवाचं हि ज्ञायते न जिनात्मता । ज्ञाने तु सुलभा सैवाऽज्ञाने उपकृतिः कथम् ? ॥ १२ ॥
अर्थात् सद्गुरुके उपदेश बिना जिन भगवानका स्वरूप नहीं समझा जा सकता; और उनके स्वरूपको समझे बिना आत्माका उपकार नहीं हों सकता । जो सद्गुरुका उपदेश किया जिन भगवानका स्वरूप समझमें आवे तभी समझनेवालेका आत्मा परिणाममें जिन सदृश दशाको प्राप्त हो सकता है ।
आत्मादि अस्तित्वना, जेह निरूपक शास्त्र । प्रत्यक्ष सद्गुरु-योग नहीं, त्यां आधार सुपात्र ॥१३॥ यत्र प्रत्यक्षता नास्ति सद्गुरुतातपादीया ।
सत्पात्रे शरणं शास्त्रं तत्रात्मादिनिरूपकम् ॥ १३ ॥ अर्थात् — जो जिनागम आदि आत्मा तथा परलोकादिकके अस्तित्त्वका उपदेश करनेवाले हैं वे भी जहाँ सद्गुरुका समागम नहीं होता वहाँ सुपात्र - भव्य - प्राणिको आधार - रूप हैं; परन्तु सद्गुरुके सदृश भ्रांतिके नाश करनेवाले वे नहीं कहे जा सकते ।
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अथवा सद्गुरुए कह्यां, जे अवगाहन काज । ते ते नित्य विचारवां, करी मतांतर त्याज ॥ १४ ॥ सद्गुरुणाऽथवा प्रोक्तं यद् यदात्महिताय तत् । नित्यं विचार्यतामन्तस्त्यक्त्वा पक्ष - मतान्तरम् ॥ १४ ॥ अर्थात- अथवा जो सद्गुरुने उन शास्त्रोंके पढ़नेकी आज्ञा दी हो तो
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