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________________ आत्मसिद्धि। फिर संसारका उच्छेद नहीं हो सकता। वे फिर संसारमें ही फंसे रह जाते हैं-आत्म-ज्ञान प्राप्त नहीं कर पाते । इस प्रकार साधन-क्रिया और जिससे इन साधनोंकी सफलता हो सकती है उस आत्म-ज्ञानका 'क्रियाजड़ों' को उपदेश किया; और जो शुष्कज्ञानी हैं उन्हे त्याग-वैराग्य आदि साधनोंका उपदेश कर यह प्रेरणा की कि वचन-रूप ज्ञान-मात्रसे आत्म-कल्याण नहीं हो सकता। ज्यां ज्यां जे जे योग्य छे, तहां समजवू तेह । त्यां त्यां ते ते आचरे, आत्मार्थी जन एह ।। ८॥ यद् यत्र वर्तते योग्यं तद् ज्ञेयं तत्र योगतः । तत् तथैव समाचर्यमेतदात्मार्थिलक्षणम् ॥ ८॥ अर्थात्-आत्मार्थी-अपना कल्याण चाहनेवाले पुरुषोंका यह लक्षणे है कि जहाँ जहाँ जो जो बातें योग्य जान पड़े उन्हें वे समझें और आचरण करें। समर्थन-जिस जगह जो बातें योग्य हों उनके समझनेका यत्न करना आत्मार्थीको उचित है अर्थात् जहाँ त्याग-वैराग्य आदि योग्य हों वहाँ उन्हें और जहाँ आत्म-ज्ञान योग्य हो वहाँ आत्म-ज्ञानको समझना चाहिए । मतलब यह कि जहाँ जिसकी जरूरत हो वहाँ उसे समझ कर उसीके अनुसार जो अपनी प्रवृत्ति करते हैं वे आत्मार्थी जन हैं। आत्म-कल्याणकी कामना करनेवाले पुरुषोंके ये लक्षण हैं । इसका पर्यवसान यह हुआ कि जो मतको चाहता है या मान-मर्यादाका इच्छुक है वह योग्य मार्गको ग्रहण नहीं कर सकता । अथवा जिन लोगोंने केवल क्रियाओंमें दुराग्रह ग्रहण कर रक्खा है या केवल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002678
Book TitleAtmasiddhi in Hindi and Sanskrit
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorUdaylal Kasliwal, Bechardas Doshi
PublisherMansukhlal Mehta Mumbai
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, Spiritual, & Rajchandra
File Size9 MB
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