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श्रीमद् राजचन्द्रप्रणीत
चिह्न नहीं हैं । उस समय यह बात जो समझमें नहीं आती कि मैं केवल मान आदिकी इच्छासे आत्म-ज्ञानी कहला रहा हूँ, इसे ही समझने का तुम यत्न करो; और वैराग्यादि साधनोंको पहले आत्मामें उत्पन्न करो कि जिससे आत्म-ज्ञानकी सन्मुखता लाभ कर सको ।
त्याग, विराग न चित्तमां, थाय न तेने ज्ञान । अटके त्याग विरागमां, तो भूले निजभान ॥ ७ ॥
यस्य चित्ते न त्यागादि न हि स ज्ञानवान् भवेत् । ये तु त्यागादिसंसक्ता निजतां विस्मरन्ति ते ॥ ७ ॥
अर्थात् — जिसके चित्तमें त्याग और वैराग्य आदि साधन उत्पन्न न हुए हों उसे आत्म-ज्ञान नहीं हो सकता; और जो केवल त्याग - वैराग्यादिमें ही लगा रह कर आत्म-ज्ञानकी इच्छा नहीं करता उसे अपना भान नहीं रहता । तात्पर्य यह कि उसके त्याग - वैराग्य अज्ञान पूर्वक होने के कारण वह पूजा सत्कार, मान-मर्यादा आदिसे पराजित होकर आत्मार्थको भुला बैठता है ।
समर्थन -- जिसके अन्तरंग में त्याग - वैराग्य आदि गुण उत्पन्न नहीं हुए उस प्राणीको आत्म-ज्ञान नहीं हो सकता; क्योंकि मलिन अन्तरंगदर्पणमें आत्मोपदेशका प्रतिबिम्ब पड़ना असंभव है । इसी प्रकार जो केवल त्याग - वैराग्यमें ही रत होकर अपनेको कृतार्थ समझ लेते हैं वे भी अपने आत्माका भान भूल जाते हैं । अर्थात् उनमें आत्म-ज्ञान न होनेसे अज्ञान उनका साथी रहता है; और जिससे कि उनकी संयमादिमें प्रवृत्ति त्याग - वैराग्यादिका मान उत्पन्न करनेका कारण बन जाती है । उससे
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