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श्रीमद राजचन्द्रप्रणीत
शुष्क- ज्ञानके अभिमान में ही अपनेको ज्ञानी समझ लिया है वे वैराग्य आदि साधन या आत्म-ज्ञानको ग्रहण नहीं कर सकते। जो सच्चे आत्मार्थी होते हैं उन्हें जहाँ जहाँ जो जो बातें योग्य जान पड़ती हैं उनको वे करते हैं और जो जो समझने योग्य जान पड़ता है उसे समझते हैं । अथवा वे लोग आत्मार्थी हैं जो जहाँ जहाँ जो जो समझने योग्य होता है उसे समझते हैं और जो आचरण-योग्य जान पड़ता है उसे आचरण करते हैं । यहाँ 'समझना' और 'आचरण करना' ये दो सामान्य पद हैं, पर विभाग रूपमें इनके कहनेका मतलब यह है कि जहाँ जहाँ समझना उचित जान पड़ता है उसे समझने की और जहाँ आचरण करना उचित जान पड़ता है वहाँ आचरण करनेकी जिनकी इच्छा रहती है वे भी आत्मार्थी कहलाते हैं ।
सेवे सद्गुरुचरणने, त्यागी दइ निजपक्ष । पामे ते परमार्थने, निजपदनो ले लक्ष ॥ ९ ॥ यः श्रयेत् सद्गुरोः पादान् स्वाग्रहत्यागपूर्वकम् । प्राप्नुयात् परमं तत्त्वं जानीयाद् निजतां ध्रुवम् ॥ ९ अर्थात् — जो अपना पक्ष छोड़ कर सद्गुरुके चरणोंकी सेवा करते हैं वे परमार्थको प्राप्त होते हैं और आत्म स्वरूपका उन्हें भान होता है ।
आत्मज्ञान, समदर्शिता, विचरे उदयप्रयोग । अपूर्ववाणी, परमश्रुत, सद्गुरुलक्षण योग्य ॥ १० ॥ आत्मज्ञानी समानेक्षी उदयाद् गतियोगवान् । अपूर्ववक्ता सद्ज्ञानी सद्गुरुरेष उच्यते ॥ १० ॥
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