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श्रीमद् राजचन्द्र
योगसे प्रायः उसी रास्ते पर जाने लग जायगी जो इसके लिए अहित मार्ग
| अतएव ऐसा ही विचार करना चाहिए जिससे ऐसे मौकोंसे दूर रहा जा सके । दया के प्रति अधिक सहानुभूति रखना हो तो जहाँ हिंसाके स्थान हैं, तथा इस प्रकारकी वस्तुयें जहाँ खरीदी बेची जाती हैं वहाँ रहने तथा आने-जानेका अवसर न आने देना चाहिए; नहीं तो दयाके प्रति जैसी चाहिए वैसी सहानुभूति नहीं रह सकती। इसी प्रकार अभक्षकी ओर अपनी वृत्तिको न जाने देने के लिए और इस मार्गकी उन्नतिको अनुमोदन न देनेके लिए अभक्ष भक्षण करनेवाले के साथ भी आहारा - दिका सम्बन्ध न रखना चाहिए ।
ज्ञान- दृष्टिसे देखने पर जाति आदिकी कोई विशेषता नहीं दिखाई पड़ती; परन्तु भक्ष्याभक्ष्यका तो वहाँ भी विचार करना ही कर्तव्य है । और मुख्यतासे इसी लिए यह वृत्ति रखना उत्तम है । कितने ही कार्य ऐसे होते हैं कि उनमें प्रत्यक्ष दोष नहीं होता अथवा उनसे कोई दोष उत्पन्न भी नहीं होता; परन्तु उनके सहारे अन्य दोष रहते हैं, अतएव विचारशीलोंको उनकी ओर भी लक्ष्य रखना उचित है । यह भी निश्चय नहीं माना जा सकता कि नैटालके लोगोंके उपकारार्थ तुम्हारी कभी ऐसी प्रवृत्ति होती होगी; क्योंकि यह तो तब माना जा सकता है जब दूसरी जगह ऐसी प्रवृत्ति करनेमें कोई रुकावट हो और उसे तुम न कर सको । और यह जान पड़ता है कि तुम्हारे इन विचारोंमें भी फर्क पड़ता जाता होगा कि उन लोगोंके उपकारार्थ ऐसी प्रवृत्ति करनी ही
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