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परिचय |
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उसके योग्य व्यवहार नहीं है । तब यह प्रश्न होता है कि लुहाणा भी तो इसी तरह चलते हैं फिर उनके यहाँके अन्नाहार आदिके ग्रहण करनेमें क्या हानि है ? तो इसके उत्तरमें इतना ही कहना योग्य है कि बिना किसी कारणके इस पद्धतिको बदलना योग्य नहीं जान पड़ता; क्योंकि यह प्रवृत्ति फिर इस उपदेशका कारण बन जायगी कि उन वर्णोंके साथ भी खान-पान में कोई हानि नहीं है जिनका इस समय हमारे साथ समागम नही हो रहा है या जो प्रसंग पड़ने पर हमारी रीति-भाँति के अनुसार ही चलते हैं । यह ठीक है कि लुहाणाके घरका अन्नाहार करनेसे वर्णाश्रम नष्ट नहीं हो जाता; परन्तु मुसलमानके यहाँ तो अन्नाहार करनेसे उसकी विशेष हानि होना संभव है; और वह वर्णाश्रम धर्मकी मर्यादाके लोप करनेके जैसा ही अपराध है । हाँ, यह हो सकता है कि ऐसी प्रवृत्ति करने में रसनेन्द्रियकी लुब्धता न होकर लोकोपकार आदि कारण हो; परन्तु तो भी यह बहुत संभव है कि अन्य लोग हमारे मतलबको न समझ कर उसका अनुकरण करने लगेंगे । और इसका परिणाम यह होगा कि उनकी प्रवृत्ति अभक्षभक्षणकी ओर हो जायगी और उसका कारण हमारा यह आचरण ही कहा जायगा । अतएव यही अच्छा है कि ऐसी प्रवृत्ति न की जाय अर्थात् मुसलमान आदि जातियोंके घरका अन्नादिका आहार करना उचित नहीं है । तुम्हारी वृत्तियोंको देख कर इसी प्रकारका विश्वास होता है; परन्तु यही वृत्ति यदि इससे उतरती हुई हो तो वह अभक्ष आहारादिके
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