________________
११४
श्रीमद् राजचन्द्र
सत्समागम आदिका योग मिल सके तो वे नैटालकी अपेक्षा भी अधिक विशेषता लाभ कर सकती हैं । तुम्हारी वृत्तियोंको देखते मैं इस बातको नहीं मान सकता कि तुम पर नैटाल अनार्य क्षेत्रके रूपमें असर करेगा; परन्तु यह मान लेना योग्य जान पड़ता है कि वहाँ सत्समागम आदि प्रायः न मिलनेके कारण कितने ही अंशोंमें आत्म-वशता न होनेरूप हानि अवश्य होगी ।
यहाँसे मैंने जो 'आर्य-आचार विचार' को सुरक्षित रखने के सम्बन्धमें लिखा था, उसमें 'आर्य- आचार' से मेरा मतलब यह है कि मुख्यता से दया, सत्य, क्षमा आदि गुणों को धारण करना; और 'आर्य- विचार' का यह आशय है कि आत्माका अस्तित्त्व, नित्यत्त्व मानना; वर्तमानमें उसके स्वरूपका अज्ञान तथा इस अज्ञान और स्वरूपके भान न होनेके कारण पर विचार करना; उन कारणों की निवृत्ति और निवृत्तिके बाद अव्याबाध आनन्द-स्वरूप अपने निज पदमें स्वाभाविक स्थिति आदि होनेके सम्बन्धमें विचार करना । इस प्रकार संक्षिप्त पर मुख्य अर्थको ले कर ये शब्द लिखे हैं । वर्णाश्रम आदि तथा वर्णाश्रम आदि - पूर्वक आचार ये सदाचारके अंगभूत हैं । यह विचारसिद्ध है कि विशेष परमार्थ साधनका हेतु न हो तो वर्णाश्रम - पूर्वक ही प्रवृत्ति करनी चाहिए । यद्यपि वर्तमान में वर्णाश्रम धर्म बहुत ही निर्बल स्थिति में आ गया है तथापि हम जब तक उत्कृष्ट त्याग दशा न प्राप्त कर सकें और जब तक गृहस्थाश्रममें रहना हो तब तक तो हमें अपने वैश्यरूप वर्ण-धर्मका ही अनुसरण करना उचित है; कारण अभक्ष - भक्षण आदि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org