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________________ परिचय। ११३ यह सन्तोष स्वाभाविक है और वह इसलिए होता है कि तुम जो समाधिके मार्ग चढ़नेकी इच्छा करते हो उससे तुम्हें संसार-क्लेशसे छुटकार। पानेका अवसर प्राप्त होगा। सं० १९५१, फागन विदी ५, 1 शनीवार । __ [३] ३ तुम्हारा पत्र मिला । इस पत्रमें मैं उसका संक्षिप्त उत्तर लिखता हूँ यह जान पड़ता है कि नैटालमें रहनेसे तुम्हारी बहुतसी सद्वृत्तियोंमें विशेषता आ गई है। परन्तु इस प्रकारकी वृत्तिका मूल कारण तुम्हारी उच्च इच्छा ही है। यह माननेमें कोई हानि नहीं कि तुम्हारी कितनी ही वृत्तियोंका राजकोटकी अपेक्षा नैटालमें अधिक उपकार होगा; क्योंकि नैटाल में ऐसे प्रपंचोंमें पडनेका दबाव तुम्हारे ऊपर नहीं पड़ सकता जिनसे कि तुम्हें अपनी सरलताको सुरक्षित रखने में कोई निजी भय हो । परन्तु जिसकी सद्वृत्तियाँ विशेष बलवान् नहीं है, निर्बल हैं और उसे इंगलैण्ड आदिमें स्वतंत्रताके साथ रहना पड़े तो यह निश्चित है कि वह अभक्ष-भक्षण आदि दोषोंको नहीं बचा सकता । और तुम्हारे लिए तो यह बात है कि नैटाल में विशेष प्रपंच न होनेसे तुम्हारी सद्वृत्तियाँ जैसी विशेषता लाभ कर सकी हैं वैसी विशेषता लाभ करना राजकोट जैसेमें और भी कठिन है । हाँ, यह संभव है कि कोई उत्तम आर्य-क्षेत्रमें रह कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002678
Book TitleAtmasiddhi in Hindi and Sanskrit
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorUdaylal Kasliwal, Bechardas Doshi
PublisherMansukhlal Mehta Mumbai
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, Spiritual, & Rajchandra
File Size9 MB
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