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श्रीमद् राजचन्द्र___ पूर्व-जन्मके किसी विशेष अभ्यासके बलसे इन छः बातोंके सम्बन्धमें विचार करनेकी शक्ति उत्पन्न होती है या सत्समागमके द्वारा ऐसी विचार-शक्ति होती है।
अनित्य वस्तुमें जो मोह-बुद्धि होती रहती है उसीके कारण आत्माके 'अस्तित्व' 'नित्यत्व' और 'अव्याबाध समाधि-सुखका भान नहीं होता। उस मोह-बुद्धि में अनादि कालसे ही जीवकी ऐसी एक लीनता चली आ रही है कि वह जरा ही उसके सम्बन्धमें विचार करनेका यत्न करता है कि उसे तुरंत ही घबरा कर पीछे लौट आना पड़ता है । और इसी कारण पहले बहुत बार ऐसा बनाव बन चुका है कि मोह-ग्रन्थिके छेदनेका समय आनेके पहले ही उसे अपने विवेकको-विचार-शक्तिको-छोड़ देना पड़ा है । क्योंकि जिसका अनादि कालसे अभ्यास पड़ रहा है वह बिना अत्यंत परिश्रम किये थोड़े ही समयमें नहीं छोड़ा जा सकता । अतएव बार बार सत्संग, सच्छास्त्र तथा सरल विचारों द्वारा इस विषयमें अधिक श्रम करना उचित है कि जिसके परिणाममें 'नित्य,' 'शाश्वत' और 'सुख-स्वरूप' आत्मज्ञान हो कर 'आत्म-स्वरूप' प्रकट होता है । इसमें पहले उठनेवाले सन्देह आगे चल कर धैर्य और विचारसे शान्त पड़ जाते हैं। और इससे विपरीत अधीरता तथा उलटी कल्पना करनेसे केवल जीवको अपने हितके त्याग करनेको विवश होना पड़ता है। और फिर इसका परिणाम यह होता है कि अनित्य पदार्थोंमें राग-बुद्धि रहनेके कारण उसे पुनः पुनः संसार-परिभ्रमण करना पड़ता है।
यह जान कर अत्यन्त सन्तोष होता है कि तुम्हें आत्म-विचार करनेकी थोड़ी बहुत इच्छा रहती है । इस संतोषमें मेरा कोई स्वार्थ नहीं है।
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