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परिचय ।
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उन पर विशेष ध्यान-पूर्वक विचार कीजिए; और कोई बात पत्र द्वारा पूछने योग्य जान पड़े तो उसे पूछिए । मैं तब उनका अधिक विस्तारके साथ उत्तर दूंगा । सबसे अच्छी बात तो यह है कि इन बातोंकी साक्षात्मे चर्चा में हो कर समाधान किया जाये। आत्म-स्वरूपमें नित्य निष्ठाके कारण-भूत विचारकी चिंतामें रहनेवाले संवत् १९५०
राजचंद्रकाकुँवार विदी ६, शनीवार। प्रणाम।
[२] "आपका पत्र मिल गया। विचार करने पर इस बातका प्रत्यक्ष अनुभव होता है कि ज्यों ज्यों उपाधिको छोड़नेका यत्न किया जाता है त्यों त्यों समाधि-सुख प्रकट होने लगता है और ज्यों ज्यों उपाधिके ग्रहण करनेकी लालसा बढ़ती जाती है त्यों त्यों समाधि सुख नष्ट होता जाता है।
इस संसारके पदार्थोंके सम्बन्धमें थोड़ा भी विचार किया जाय तो इसके प्रति वैराग्य हुए बिना नहीं रह सकता; क्योंकि इसमें मोह-बुद्धि तभी तक रहती है जब तक अविचार है।
जिन भगवान्ने कहा है कि उस मनुष्यको ‘विवेक-ज्ञान' या 'सम्यग्दर्शन'की प्राप्ति हुई समझनी चाहिए जिसने खूब विचार-मनन कर नीचे लिखी छः बातोंको समझ लिया है। "आत्मा है," "आत्मा नित्य है" "आत्मा कर्मोंका कर्ता है," "आत्मा कर्मोंका भोक्ता है," "आत्मा कर्मोंसे छूट सकता है," और "कर्मोंसे छूटनेके साधन हैं"।
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