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श्रीमद् राजचन्द्र
तिर्यंच भी होता है, और पृथ्वी काय अर्थात् पृथ्वी-रूप शरीर भी धारण करता है । उस दशामें उसे चार इन्द्रियोंके बिना कर्म भोगने पड़ते हैं। पर यह नहीं है कि वह पृथ्वी या पत्थर हो जाता है । वह पत्थर-रूप कायशरीर धारण करता है। परन्तु उसमें भी अव्यक्त-रूपसे जीव रहता ही है। उसमें बाकी चार इन्द्रियोंकी प्रकटता न होनेसे उसे पृथ्वीकाय जीव कहते हैं, वह एकेन्द्रिय है। अनुक्रमसे जब यह एकेन्द्रिय पृथ्वीकाय जीव कर्मोको भोग कर अन्य गति लाभ करता है तब वह पृथ्वी-रूप पत्थरका पिंड परमाणुओंके रूपमें रह जाता है। उसमें से जीवके निकल जानेसे फिर उसमें आहारादि संज्ञायें नहीं होती। इससे यह न समझ लेना चाहिए कि पत्थर-जीव केवल जड़के जैसा होता है । जिन कर्मोंकी विषमतासे जीवको केवल एक स्पर्शन इन्द्रिय धारण करनी पड़ती है-बाकी चार इन्द्रियाँ अप्रकट सत्ता-रूपसे रहती हैं-उन कर्मोंको भोगते समय उसे पृथ्वी आदिमें जन्म धारण करना पड़ता है। परन्तु वह बिलकुल पृथ्वी-रूप या पत्थर-रूप नहीं हो जाता। वह पशुयोनि भी धारण करता है, पर इससे पशु-रूप नहीं हो जाता है। शरीर धारण करना जीवका एक वेष है। स्वरूप नहीं है। __छठे और सातवें प्रश्नका समाधान भी इसी उत्तरसे हो जाता है कि केवल पत्थर या केवल पृथ्वी कर्मोंके कर्त्ता नहीं है। किन्तु उनमें उत्पन्न हुआ जीव कर्मोंका कर्ता है; और वे दूध तथा पानीकी भाँति जुदे जुदे हैं। जिस प्रकार दूध और पानी एक मिले हुए होने पर भी दूध दूध है
और पानी पानी है अर्थात् अपनी अपनी सत्ताकी अपेक्षा दोनों ही जुदे जुदे हैं। इसी प्रकार एकेन्द्रिय आदि कर्म-बंधके कारण जीवमें पत्थर-रूप
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