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परिचय ।
पृथ्वीकायत्व-जड़त्व-भाव देखा जाता है। परन्तु वास्तवमें तो जीव जीव-रूप ही है और उस हालतमें भी वह आहार आदि संज्ञाओंको-जो कि अव्यक्त रहती हैं-भोगता है।
८ वाँ प्रश्न-"आर्य धर्म क्या है ? प्रायः सब धर्मोकी उत्पत्ति क्या वेदहीसे है ?"
उत्तर-(१) आर्य-धर्मकी व्याख्या करते हुए प्रायः सभी अपने अपने धर्मको 'आर्य-धर्म' कहनेका दावा करते हैं । जैनी जैनधर्मको, बौद्ध बुद्धधर्मको और वेदान्ती वेदान्तको 'आर्य-धर्म' कहते हैं। यह एक साधारण बात है। परन्तु ज्ञानीजन तो उसे ही 'आर्य-धर्म' कहते हैं जिससे निज स्वरूपकी प्राप्ति हो सकती है; और वही आर्य (उत्तम) धर्म या मार्ग है ।
(२) प्रायः मतों या धर्मोंकी उत्पत्ति वेदोंमेंसे हुई संभव नहीं जान पड़ती। इसका कारण मेरे अनुभवमें यह आता है कि वेदोंमें जितना ज्ञान कहां गया है उससे अनन्त गुणा ज्ञान श्रीतीर्थकर आदि महात्माओंने कहा है। और इससे मैं यह समझता हूँ कि थोड़ी वस्तुमेंसे पूर्ण वस्तु नहीं निकल सकती । इस परसे वेदोंमेंसे सब धर्मोकी उत्पत्ति कहना संगत नहीं जान पड़ता । वैष्णव आदि कितने ऐसे सम्प्रदाय हैं जिनकी उत्पत्ति वेदोंसे माननेमें कोई बाधा नहीं आती । जैन और बौद्धोंके जो महावीर, गौतमबुद्ध अन्तिम महात्मा हुए हैं वेद उनसे पहले थे; इतना ही नहीं किन्तु वे बहुत प्राचीन जान पड़ते हैं। तब भी यह नहीं कहा जा सकता कि जो प्राचीन हो वही सम्पूर्ण हो या सत्य हो और पीछेसे उत्पन्न होनेवाला असम्पूर्ण और असत्य हो । सब भाव अनादि हैं; मात्र उनमें रूपान्तर होता रहता है। किसी वस्तुकी सर्वथा उत्पत्ति या सर्वथा नाश नहीं होता।
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