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परिचय।
विचार करने पर ज्ञानीजनोंका यह कथन सहज ही प्रमाणभूत जान पड़ता है।
४ था प्रश्न--"क्या इस देहमें रहते हुए यह बात ठीक ठीक जानी जा सकती है कि मोक्ष प्राप्त होगा या नहीं ?"
उत्तर-जिस प्रकार रस्सीसे खूब जकड़े हुए हाथोंके बंधन धीरे धीरे और जैसे जैसे ढीले किये जाने लगते हैं वैसे वैसे ही यह अनुभव होने लगता है उन कि बंधनोंसे निवृत्ति-मुक्ति हो रही है और जान पड़ता है कि उस निवृत्ति पर अब रस्सीकी कोई सत्ता या बल नहीं है। उसी प्रकार आत्मा जो अज्ञान-भावमय अनेक प्रकारके परिणाम-रूप बंधनोंसे बद्ध हो रहा है उसके वे बंधन जैसे जैसे छूटते जाते हैं वैसे वैसे उसे मोक्षका अनुभव होने लगता है। और जब ये बंधन बहुत ही हलके रह जाते हैं तब आत्मामें स्वाभाविक निज स्वभाव प्रकाशित होकर आत्मा अज्ञान-भाव-रूप बंधनसे कुछ मुक्ति लाभ करता है। इस प्रकार इन अज्ञानादि भावोंकी जब सर्वथा निवृत्ति हो जाती है तब इस शरीरके बने रहते हुए भी आत्म-भाव प्रकट हो जाते हैं और फिर उस शुद्ध आत्माको सर्व बंधनोंसे अपनी भिन्नताका अनुभव होने लगता है अर्थात् इसी देहमें ही 'मोक्षपदका' अनुभव किया जा सकता है।
५ वाँ प्रश्न-'शास्त्रों में यह कहा गया है कि मनुष्य इस शरीरका परित्याग कर कोंके अनुसार पशु-योनिमें जाता है, पत्थर होता है, यहाँ तक कि वृक्ष होता है; क्या यह सब ठीक है ?"
उत्तर-जब आत्मा एक शरीरका त्याग कर दूसरे शरीरमें जाता है तब उसकी अपने उपार्जित कर्मोंके अनुसार गति होती है। वह फिर
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