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परिचय ।
है तथा दूसरे भी इसी प्रकार या इसीके जैसे ही अन्य शब्द द्वारा उसका उल्लेख करते हैं । परन्तु वास्तवमें विचार करने पर यह स्पष्ट समझमें आ सकता है कि आत्मा घट-पटादि या क्रोधादि भावोंका कर्ता नहीं है। किन्तु अपने निजस्वरूप ज्ञान-परिणामका ही कर्ता है। ___ (३) जो कर्म अज्ञान-भावसे किये जाते हैं वे प्रारंभमें बीज-रूप होकर समय पर फल-युक्त वृक्षके रूपमें परिणत होते हैं। मतलब यह कि वे कर्म आत्माको ही भोगने पड़ते हैं। जिस प्रकार कि आगको छूनेसे पहले उष्णताका सम्बन्ध होता है और बाद सहज ही उसे वेदना पड़ता है। यही हालत क्रोधादि भावोंके कर्ता होनेसे आत्माकी होती है, और इससे फिर उसे जन्म-जरा-मरणादि परिणाम भोगने पड़ते हैं । इस विषय पर तुम कुछ विशेष विचार करना, और उसमें कुछ प्रश्न उठे तो लिखना। कारण जिस समझके द्वारा निवृत्ति-रूप कार्य किया जाता है उससे जीव निर्वाण लाभ करता है।
२ रा प्रश्न-'ईश्वर क्या वस्तु है ? और वह जगत्का कर्ता है ?"
उत्तर--(१) देखो, हम-तुम कर्म-बंध-सहित हैं- हमारा आत्मा कर्मबद्ध है । इस आत्माका जो सहज स्वरूप है अर्थात् इसकी जो कर्ममुक्त अवस्था है-एक आत्म-रूपता है-वही ईश्वरत्व है। ज्ञानादि ऐश्वर्य जिसमे पाये जायें वह ईश्वर है और वह ईश्वरत्व आत्माका सहज स्वरूप है। परन्तु कर्मोंके सम्बन्धसे वह स्वरूप जान नहीं पड़ता। और जब कर्मों के सम्बन्धको आत्मासे भिन्न समझ कर आत्माकी ओर दृष्टि की जाती है तब धीरे धीरे उसी आत्मामें सर्वज्ञता आदि ऐश्वर्य जान पड़ने लगते हैं। और सर्व पदार्थीका सूक्ष्मतासे अवलोकन करने पर ऐसा कोई पदार्थ
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