________________
९४
श्रीमद् राजचन्द्र
ओर गहरा विचार करने पर आत्मांकी नित्यता सहज ही अनुभवमें आने लगती है । इस बात मान लेनेमें कोई दोष या बाधा नहीं आती, बल्कि सत्यको स्वीकार करना है कि सुख-दुःखादिके भोगने - रूप, उनसे छूटने-रूप, विचार करने रूप तथा प्रेरणा रूप आदि भाव जिसके अस्तित्वके कारण ही अनुभवमें आते हैं वह आत्मा मुख्यतया चेतना (ज्ञान) लक्षणवाला है; और ऐसे भाव उसमें सदा-सर्वदा रहते हैं, इस लिए वह नित्य पदार्थ है । तुम्हारा यह प्रश्न तथा ऐसे ही और कितने प्रश्न हैं कि जिनके विषयमें बहुत कुछ लिखने, कहने, तथा समझाने की आवश्यकता है। ऐसी हालतमें इन प्रश्नोंका उत्तर देना कठिन होनेसे ही पहले तुम्हें 'षड्दर्शन समुच्चय' नामक ग्रन्थ भेजा गया था । वह इस लिए कि उसे पढ़ कर, उसका मनन कर थोड़ा बहुत तुम्हारे चित्तका समाधान हो और मेरे पत्र द्वारा भी तुम्हें कुछ विशेष सन्तोष हो सके । इतना ही इस समय बन सकता है । कारण स्थिति ऐसी है कि इस उत्तरसे पूरा पूरा समाधान न होकर उसमें और भी प्रश्न उठनेके लिए अवकाश है; और वे बार बार समाधान किये जाने तथा विचारनेसे ही हल हो सकते हैं ।
1
।
( २ ) आत्मा ज्ञान-दशामें - अपने स्वरूपका यथार्थ ज्ञान हो जानेकी अवस्थामें --- निज भावोंका अर्थात् ज्ञान, दर्शन और सहज समाधि- रूप परिणामोंका कर्त्ता है । और अज्ञान-दशामें क्रोध - मान-माया - लोभ आदि पर - भावोंका कर्त्ता है और इन भावोंका फल भोगते समय प्रसंग- वश घटपटादि पदार्थोंका भी निमित्तकारण-रूप कर्ता है। मतलब यह कि वह घटपटादि पदार्थोंके मूल द्रव्य मिट्टीका कर्त्ता नहीं है; किन्तु उसे किसी नये आकार में लाने रूप क्रियाका कर्त्ता है । यह जो आत्माकी पीछेसे हालत बतलाई गई उसे जैनधर्म 'कर्म' कहता है; वेदान्त ' भ्रान्ति' कहता
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org