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श्रीमद् राजचन्द्र
जैसा उनके संचालक उन्हें श्रीमद् राजचंद्रके विषयमें समझा देते हैं । वे नहीं जानते कि लोग उनके विषय में जो कुछ उल्टीसीधी बातें सुझा रहे हैं वे या तो चिर-प्ररूढ़ संस्कारोंके वश होकर सुझा रहे हैं या उन्हें इस बातका भय है कि कहीं उनकी प्रतिष्ठामें कमी न आ जाय । जिन्होंने श्रीमद राजचंद्र के विचारोंका अवलोकन किया है उन्हें विश्वास होगा कि श्रीमद् राजचंद्रका पूर्ण उपदेश ही यह था कि ज्ञान और क्रिया ये दोनों ही साथ साथ होने चाहिए। और इसी कारण जिस प्रकार के संस्कार आनन्दघनजी में थे उसी प्रकारके संस्कार श्रीमद् राजचंद्रमें भी किसी किसी जगह देखे जाते हैं। इसे देख कर लोग जो श्रीमद् राजचंद्रका चित्र अन्यथा - रूपसे चित्रित करते हैं विश्वास है कि उससे श्रीमद् राजचंद्रके आत्माका न तो कुछ नुकसान हुआ है और न होने का ही है; किन्तु ऐसा करनेसे जो नुकसान होता है वह इस प्रकारके प्रयत्न करनेवालोंके आत्माका और उन धर्म - सञ्चालकोंके समाजका ही होता है । कारण इस बात से सब अच्छी तरह परिचित हैं कि हमारी पुरानी पद्धति कुछ ऐसी है कि उसके द्वारा धर्मके संस्कार इस नये जमाने के लोगोंको ग्राह्य नहीं कराये जा सकते। इसके लिए श्रीमद् राजचंद्रकी शैली बहुत श्रेष्ठ है । उससे उन लोगों के हृदय में भी धर्म के संस्कार प्ररूढ़ हो जाते हैं जो पाश्चात्य जड़वाद के खूब अभ्यासी हैं ।
विषय बहुत बढ़ गया है, इस लिए अब श्रीमद् राजचंद्रके लेखोंके अंश उद्धृत करना उचित नहीं जान पड़ता; परन्तु हाँ, इस जगह उस महापुरुषके सम्बन्ध के पत्रों पर पाठकोंका ध्यान आकर्षित करना बहुत प्रासंगिक होगा कि जिसने भारतीयों के अमानुषिक दुःखोंकी मुक्तता के लिए स्वयं दुःख
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