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परिचय ।
ज्ञान और क्रिया। आत्मत्व लाभ करनेके लिए ज्ञान और क्रिया ये दो मुख्य साधन हैं। इनमें श्रीमद् राजचंद्रको वर्तमान जैनसमाजमें ज्ञानकी बहुत ही कमी दिखाई दी। इसीके साथ उन्होंने यह भी देखा कि उसमें जो कुछ क्रियायें की जाती हैं वे उनका मूल उद्देश समझे बिना तथा उनके यथार्थ स्वरूपका अनुसरण किये बिना ही की जाती हैं । श्रीमद् राजचंद्रने इस विषय पर जैनसमाजका समय समय पर ध्यान खींचा है। वे चाहते थे कि ज्ञान और क्रिया ये दोनों युग-पद होने चाहिए । जो ज्ञान हो और क्रिया-आचरण-न हो तो वह ज्ञान शुष्क ज्ञान कहा जाता है । इसी प्रकार क्रिया हो और ज्ञान न हो तो वह क्रिया शुष्क क्रिया है। श्रीमद् राजचंद्रने उस समय जैनसमाजकी प्रायः ऐसी ही स्थिति देख कर इस विषयमें जैनसमाजका ध्यान खींचनेका यत्न किया था, परन्तु दुःख है कि लोगोंने उनके इस प्रयत्नकी कदर नहीं की; और श्रीमान् प्रबल आत्मज्ञानी आनन्दघनजी महाराजके जैसा उन्हें भी कुछ लोगोंकी अश्रद्धाका भाजन बनना पड़ा । आनन्दघनजी महाराज आध्यात्मिक विषयके बड़े अनुभवी विद्वान् थे। उनका अध्यात्मकी ओर लक्ष्य देख कर उनके समयके कुछ लोगोंने यह मान लिया था कि वे तो क्रिया-कांडका उत्थापन करते हैं। और इसी प्रकार कितने लोगोंने उनका चित्र भी इसी भाँति चित्रित करनेका प्रयत्न किया था कि आनन्दधनजी क्रियाकांडके निषेधक थे। ठीक यही हालत श्रीमद् राजचंद्रके विषयकी है। कितनी ही बार उनके सम्बन्धमें भी ऐसी ही बातें होती हुई देखी गई हैं कि जिन्हें देख कर अत्यन्त दुःख होता है । जिन्हें अपने कुलधर्मके सञ्चालकोंमें ही ममत्त्व हो गया है वे बेचारे तो वैसा ही झटसे मान लेते हैं
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