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श्रीमद् राजचन्द्र
मूर्च्छा कर चारित्र में शिथिलता लादी जाय । दिगम्बर और श्वेताम्बर ये दोनों ही वृत्तियाँ देश, काल और अधिकारीके विचारसे उपकारहीकी कारण है । मतलब यह कि ज्ञानियोंने जहाँ जैसा उपदेश किया है उसके अनुसार प्रवृत्ति करनेसे वह आत्माके हितके लिए ही है । 'मोक्षमार्ग प्रकाश' में वर्तमान जिनागमोंका-जिन्हें कि श्वेतांबर सम्प्रदाय मानता है - जो निषेध किया गया है, वह ठीक नहीं है । वर्तमान आगमोंमें कुछ स्थान अधिक सन्देह-जनक हैं; परन्तु सत्पुरुषकी दृष्टिसे देखनेसे उनका समाधान हो सकता है । इस लिए उपशम- दृष्टिसे आगमोंके अवलोकन करनेमें संशय करना ठीक नहीं है । "
यह बात नहीं है कि श्रीमदू राजचंद्रके गुणोंमें अनुराग होनेसे यह बात कही जाती हो; परन्तु वस्तुस्थिति ऐसा कहनेके लिए बाध्य करती कि जबसे जैनशासनमें श्वेतांबर और दिगम्बर ऐसे दो भेद पड़े हैं तब - से दोनों ही सम्प्रदायोंके किसी भी ग्रन्थकारका ऐसा साम्य स्वरूप लिखा हुआ जैन इतिहास में देखने में नहीं आता । दोनों सम्प्रदायोंके उपदेशक अपनी अपनी रक्षामें ही प्रायः निरत रहे हैं । जहाँ तक अभ्यास और विचार किया है तो उससे यही जान पड़ता है कि डेड़-दो हजार वर्षोंमें यह पहला ही उदाहरण है जिसमें दोनों ही सम्प्रदायोंकी मान्यताकी इस प्रकार निष्पक्षपात बुद्धिसे जाँच की गई हो। और जो श्वेतांबर जिन आगमोंको मानते हैं दिगम्बर उन्हें कल्पित बतलाते हैं, जान पड़ता है दिगम्बरोंकी इस मानताके कारण ही दिगम्बरी पंडित श्रीयुत टोडरमलजीने वर्तमान श्वेतांबर-मान्य आगमोंका निषेध किया है । परंतु श्रीमदू राजचंद्रको पंडितजीका वह निषेध योग्य नहीं जान पड़ा ।
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