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________________ षड्दर्शनसमुच्चये [ का० ११.६९१ स्यानुपपत्तितो नित्यात्सत्त्वस्य व्यावृत्तिरिति विपक्षासत्त्वम्, सच्च सर्वमित्युपनयः सत्त्वात्सर्वं क्षणिकमिति निगमनम् । एवमन्यहेतुष्वपि ज्ञेयम् । यद्यपि व्याप्युपेतं पक्षधर्मतोपसंहाररूपं सौगतेरनुमानमाम्नायि, तथापि मन्दमतीन् व्युत्पादयितुं पञ्चावयवानुमानदर्शनमप्यदुष्टमिति । अयमंत्र लोकद्वयस्य तात्पर्यार्थः पक्षधर्मान्वयव्यतिरेकलक्षणरूपत्र योपलक्षितानि त्रीण्येव लिङ्गानि अनुपलब्धिः, स्वभावः, कार्यं चेति । ९१. अत्रानुक्तोऽपि विशेषः कश्चन लिख्यते । तंत्र प्रमाणादभिन्नमर्थाधिगम एव प्रमाणस्य फलम् । तर्कप्रत्यभिज्ञयोरप्रामाण्यम् । परस्परविनिलुंठितक्षणक्ष यिपरमाणुलक्षणानि स्वलक्षणानि प्रमाणगोचरस्तात्त्विकः । वासनारूपं कर्म । सुखदुःखे धर्माधर्मात्मके । पर्याया एव सन्ति, न द्रव्यम् । वस्तुनि केवलं स्वसत्त्वमेव न पुनः परासत्त्वमिति सामान्येन बौद्धमतम् । ९२. अथवा वैभाषिक-सौत्रान्तिक- योगाचार माध्यमिक भेदाच्चतुर्धा बौद्धा भवन्ति । तत्रार्यसमिती या परनामक वैभाषिक मतमदः - चतुःक्षणिकं वस्तु । जातिर्जनयति । स्थितिः स्था ७२ वाले सत्त्व हेतुकी नित्य पदार्थसे व्यावृत्ति हो जाती है । यही इसके विपक्षासत्त्व रूपका विवेचन है । 'चूंकि सभी पदार्थ सत् हैं' यह उपनय वाक्य है । ' इसलिए सत् होनेसे सभी क्षणिक हैं' यह निगमन है । इसी तरह अन्य हेतुओं में भी त्रिरूपता घटा लेनी चाहिए । बौद्ध यद्यपि व्याप्तिसे युक्त पक्षधर्मताका उपसंहार ( उपनय वाक्य रूप ) ही अनुमान मानते हैं फिर भी मन्दबुद्धियोंको समझाने के लिए यहाँ पाँच अवयववाले अनुमान वाक्यका प्रयोग किया है, अतः कोई दोष नहीं है । इस तरह उक्त दो श्लोकोंका यह तात्पर्य हुआ कि पक्षधर्म, अन्वय तथा व्यतिरेक रूप तीन लक्षणवाले हेतु अनुपलब्धि, स्वभाव तथा कार्यके भेदसे तीन प्रकारके हैं । 1 $ ९१. अब मूल ग्रन्थकारके द्वारा नहीं कही गयी कुछ विशेष बातोंका वर्णन करते हैंअधिगम ही प्रमाणका फल है । यह प्रमाणसे सर्वथा अभिन्न है। तर्क और प्रत्यभिज्ञान प्रमाण नहीं हैं । स्वलक्षण परस्पर अत्यन्त भिन्न क्षणिक परमाणुरूप होते हैं । वे ही प्रमाणका तात्त्विक विषय हैं । कर्म वासना रूप है। सुख-दुःख धर्म और अधर्म रूप हैं। पर्याय हो तत्त्व है, द्रव्य नहीं । वस्तु में केवल स्वरूपसत्त्व ही है परकी अपेक्षा नास्तित्व- परासत्त्व नहीं । यह सामान्यसे बौद्धमता निरूपण है । ९२. अथवा वैभाषिक, सौत्रान्तिक, योगाचार और माध्यमिक ये चार प्रकारके बौद्ध हैं । वैभाषिक को आसमितीय भी कहते हैं। उनका मत इस प्रकार है-वस्तु चतुःक्षणिक - चार क्षण पर्यन्त है— जन्म उसे उत्पन्न करता है, स्थिति उसका स्थापन करती है, जरा उसे जीर्ण करती है तथा विनाश उसका नाश कर देता है। आत्मा भी इसी प्रकार चतुःक्षणिक है। आत्माका दूसरा · १. पि कश्चन विशेषः लि-भ २ । २, तत्र द्वादशैव पदार्थ आयतनसंज्ञयोच्यन्ते । तद्यथा पञ्चेन्द्रियाणि पञ्च शब्दादयो मनो धर्मायतनं च । घर्मास्तु सुखादयो विज्ञेयाः । अविसंवादिज्ञानं प्रमाणमिति प्रमाणस्य लक्षणं प्रत्यक्षानुमाने द्वे एव प्रमाणे प्रमाणाद-भ. २ । ३. " तदेव च प्रत्यक्षं ज्ञानं प्रमाणफलम् । अर्थप्रतीतिरूपत्वात् ।" न्यायवि. १।१७, १८ । “स्वसंवित्तिः फलञ्चास्य तद्रूपादर्थनिश्चयः । विषयाकार एवास्य प्रमाणं तेन मीयते ।।" प्रमाणसमु. १११० । “विषयाधिगतिश्चात्र प्रमाणफलमिष्यते । स्ववित्तिर्वा प्रमाणं तु सारूप्यं योग्यतापि वा ॥ १३४३ ।। " तत्त्वसं । ४. यस्यार्थस्य सन्निधानासन्निधानाभ्यां ज्ञानप्रतिभासभेदस्तत् स्वलक्षणम् ।" न्यायबि. ११३ । ५. "वासनापूर्व विज्ञानकृतिका शक्तिरुच्यते । ॥ वासनेति हि पूर्वविज्ञानजनितां शक्तिमामनन्ति वासनास्वरूपविदः ।" प्र वार्तिकाल, ३५६ । ६. कर्म पर्याया क. प. १, २ । कर्म सुखदुःखे धर्मात्मके पर्याया भ. २ । ७. - नाम-भ २ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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