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________________ का० ११. ६९०] बौद्धमतम् । भावादेव न सपक्षसत्त्वविपक्षासस्वे । 'अनित्यः शब्दः, प्रमेयत्वात्, पटवत् लोहलेख्यं; वज्रं पार्थिवस्वात्, द्रुमादिवता सलोमा मण्डकः, उत्प्लुत्योत्प्लुत्यगमनात, हरिणवत; निर्लोमा वा हरिणः, उत्प्लुत्योत्प्लुत्यगमनात्, मण्डूकवत्'-एज्वनित्यत्वादिसाध्यविपर्ययेऽपि हेतूनां वर्तनान्न विपक्षासत्त्वम् । तत एतानि त्रीणि समुदितानि रूपाणि यस्य हेतोभवन्ति स एव हेतुः स्वसाध्यस्य गमको भवति नापरः। ६९०. 'नन्वेवं लक्षणा हेतवः कति भवन्तीति चेत् । ननूक्तं पुरापि एतल्लक्षणा अनुपलब्धिस्वभावकार्याख्यास्त्रय एव हेतव इति । एषामुदाहरणानि प्रागेवोपर्शितानि, तथापि पुनः स्वभावहेतुरुदाहियते, सर्व क्षणिकमिति पक्षः, सत्त्वादिति हेतुः अयं हेतुः सर्वस्मिन्वर्तत इति पक्षधर्मत्वम्, यत्सत्तक्षणिकं यथा विद्युदादोति सपक्षसत्त्वम्, यत्क्षणिकं न भवति, तत्सदपि न भवति यथा खपुष्पम् । अत्र क्षणिकविपक्षे नित्ये क्रमयोगपद्याभ्यामक्रियालक्षणस्य सत्त्वशब्द अनित्य है क्योंकि कौआ काला है। इस हेतुमें पक्षधर्मता नहीं है। शब्द अनित्य है क्योंकि वह श्रावण-श्रोत्र इन्द्रियके द्वारा जाना जाता है। यहां सपक्ष और विपक्षका अभाव ही है अतः सपक्षसत्त्व और विपक्षासत्त्व ये दो रूप नहीं हैं। 'शब्द अनित्य है क्योंकि वह प्रमेय है जैसे कि पट । वज्र लोहके द्वारा काटा जा सकता है क्योंकि वह पार्थिव है जैसे कि वृक्ष । मेंढकके लोम होते हैं क्योंकि वह हरिणकी तरह उचक-उचककर चलता है। हरिणके लोम नहीं होते क्योंकि वह मण्डूककी तरह उचक-उचककर चलता है।' इत्यादि हेतु अनित्यत्व आदि साध्यके अभावमें भी रहते हैं अतः इनमें विपक्षासत्त्व नहीं है। अतः पक्षधर्मत्व आदि तीनों रूप समुदित अर्थात् एक साथ मिलकर हो हेतुके स्वरूप होते हैं। जिसमें ये तीनों रूप एक साथ पाये जाते हैं वही हेतु अपने साध्यका गमक होता है और वही सहेतु है, अन्य नहीं। ६९०. शंका-तीन रूपवाले हेतु कितने प्रकारके होते हैं ? समाधान-यद्यपि हम यह पहले भी बता चुके हैं कि-तीन रूपवाले हेतु अनुपलब्धि कार्य तथा स्वभावके भेदसे तीन प्रकारके हैं । इनके उदाहरण भी पहले ही कहे जा चुके हैं। स्वभाव हेतुका वर्णन पुनः करते हैं-'सभी पदार्थ क्षणिक हैं' इस पक्षमें 'सत् होनेसे' इस हेतुका प्रयोग किया जाता है। यह सत्त्व हेतु पक्षभूत सभी पदार्थों में पाया जाता है अतः इसमें पक्षधर्मत्व बन जाता है । 'जो-जो सत् होते हैं वे क्षणिक होते हैं जैसे कि बिजली आदि' यह उसके सपक्षसत्त्वका कथन हुआ। 'जो क्षणिक नहीं वे सत् भी नहीं हैं जैसे कि आकाशका फूल' । यहाँ क्षणिकके विपक्षभूत नित्यपदार्थमें क्रम तथा योगपद्य दोनों ही रूपसे अर्थक्रिया नहीं बनती, अतः अर्थक्रिया-लक्षण १. नन्वेतल्ल-आ.। २. "एष एव पक्षधर्मोऽन्वयव्यतिरेकवान् इति तदंशेन व्याप्तः त्रिलक्षण एव विविध एक हेतुर्गमकः, स्वसाध्यधर्माभिचारात् ।" -हेतुबि. प.६८। "एतल्लक्षणो हेतुस्त्रिप्रकार एव । स्वभावः, कार्यम्, अनुपलब्धिश्चेति । यथा अनित्ये कस्मिश्चित साध्ये सत्त्वमिति । अग्निमति प्रदेशे धुम इति । अभावे च उपलब्धिलक्षणप्राप्तस्यानुपलब्धिरिति ।" -हेतुबि. पु. ५४ । ३. "तस्य द्विधा प्रयोगः । साधर्येण एकः, वैधयेणापरः। यथा-यत् सत् तत् सर्व क्षणिकम् । यथा घटादयः । संश्च शब्दः, तथा क्षणिकत्वाभावे सत्त्वाभावः ।" -हेतुवि पृ. ५५। तस्य समर्थनं साध्येन व्याति प्रसाध्य धम्मिणि भावसाधनम् । यथा-यद्य (?त्स)त्कृतकं वा तत्सर्वमनित्यं यथा घटादिः सन्कृतको वा शब्द इति । अत्रापि न कश्चित्क्रमनियम इष्टार्थसिद्धरुभयत्राविशेषात् । धमिणि प्राक्सत्त्वं प्रसाध्य पश्चादपि व्याप्तिः प्रसाध्यते एव । यथा सन् शब्दः कृतको वा यश्चैवं स सर्वोऽनित्यः यथा घटादिरिति । अत्र व्याप्तिसाधनं विपर्यये बाधकप्रमाणोपदर्शनम् । यदि न सर्व सत् कृतकं वा प्रतिक्षणविनाशि स्यादक्षणिकस्य क्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियाऽयोगादर्थक्रियासामर्थ्यलक्षणमतो निवृत्तमित्यसदेव स्यात् ।" -वादन्याय प. ५-८। ४.-स्मिन् प्रव. भ. २। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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