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षड्दर्शनसमुच्चये
[ का० ११.६८९पक्षधर्मत्वं' पक्षे धर्मिणि हेतोः सद्भावः। सेच प्रत्यक्षतोऽनुमानतो वा प्रतीयते। तत्र प्रत्यक्षतः कस्मिश्चित्प्रदेशे धूमस्य दर्शनम् । अनुमानतश्च शब्दे कृतकत्वस्य निश्चयः। इवमेकं रूपम् । तथा समानः पक्षः सपक्षः, तस्मिन्सपक्षे दृष्टान्ते विद्यमानता हेतोरस्तित्वं सामान्येन भाव इत्यर्थः । इदं द्वितीयं रूपम्, अस्य च 'अन्वयः' इति "द्वितीयमभिधानम् । तथा विरुद्धः पक्षो विपक्षः साध्यसाधनरहितः; तस्मिन्विपक्षे नास्तिता हेतोरेकान्तेनासत्त्वम् । इदं तृतीयं रूपम्, अस्य च 'व्यतिरेक' इति द्वितीयमभिधानम् । एतानि पक्षधर्मत्वसपक्षसत्त्वविपक्षासत्त्वलक्षणानि हेतोलिङ्गस्य त्रीणि रूपाणि । एवं शब्दस्य इतिशब्दार्थत्वादिति विभाव्यतां हृदयेन सम्यगवगम्यताम् ।
६८९. तत्र हेतोयंदि पक्षधर्मत्वं रूपं न स्यात् तदा महानसादौ दृष्टो धूमोऽन्यत्र पर्वतादौ वह्नि गमयेत्, न चैवं गमयति, ततः पक्षधर्मत्वं रूपम् । तथा यदि सपक्षसत्त्वं रूपं न स्यात् तदा साध्यसाधनयोरगृहीतप्रतिबन्धस्यापि पुंसो धूमो दृष्टमात्रो धनञ्जयं ज्ञापयेत्, न चैवं ज्ञापयति, अतः सपक्षसत्त्वं रूपम् । तथा यदि विपक्षासत्त्वं रूपं न स्यात् तदा धूमः साध्यरहिते विपक्षे जलादावपि वह्निमनुमापयेत्, न चैवमनुमापयति, तेन विपक्षासत्त्वं रूपम् । अथवा 'अनित्यः शब्दः, काकस्य कार्ध्यात्' अत्र न पक्षधर्मः। 'अनित्यः शब्दः, श्रावणत्वात्' अत्र सपक्षविपक्षातरह धर्म साध्य भी सिद्ध ही हो जायेगा। अतः पक्षधर्मत्वका अर्थ है-पक्षमें अर्थात् धर्मी में हेतुका सद्भाव होना । हेतुकी पक्षधर्मताका ज्ञान कहीं तो प्रत्यक्षसे और कहीं अनुमानसे होता है। प्रत्यक्षसे ही किसी प्रदेशमें, जहाँ अग्नि सिद्ध करना इष्ट होता है, घूमका दर्शन होकर पक्षधर्मताका ग्रहण हो जाता है । अनित्यत्व सिद्ध करनेके लिए प्रयुक्त कृतकत्व हेतुका शब्दरूप पक्षमें रहना अनुमानके द्वारा जाना जाता है। यह हेतुका पहला रूप है। तथा पक्षके समान धर्मवाले धर्मीको सपक्ष कहते हैं। उस सपक्ष अर्थात् दृष्टान्तधर्मी में हेतुकी सामान्य रूपसे मौजूदगीको सपक्षसत्त्व कहते हैं। यह हेतुका द्वितीयरूप है। इसका दूसरा नाम 'अन्वय' है। तथा, पक्षसे विपरीत धर्मवाले धर्मीको, जिसमें साध्य और साधन दोनोंका ही सद्भाव नहीं है, विपक्ष कहते हैं। इस विपक्षमें हेतुका सर्वथा नहीं रहना विपक्षनास्तिता कहलाती है। यह हेतुका तीसरा रूप है । इसको 'व्यतिरेक' भी कहते हैं। पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व तथा विपक्षासत्त्व ये तीन हेतुके स्वरूप हैं। एवं शब्द इतिशब्दके अर्थमें प्रयुक्त हुआ है । विभाव्यताम् अर्थात् सम्यक् रूपसे हृदयमें समझना चाहिए।
८९. यदि पक्षधर्मत्व हेतुका स्वरूप न माना जायेगा; तो रसोईघर आदिमें देखे गये धूमसे पर्वतमें भी अग्निका अनुमान होना चाहिए। पर ऐसा होता नहीं है। इसलिए नियतधर्मीमें ही साध्यके अनुमानकी व्यवस्थाके लिए पक्षधर्मत्वको हेतुका स्वरूप अवश्य मानना चाहिए। इसी तरह यदि सपक्षसत्त्व हेतुका स्वरूप न हो; तब जिस आदमीने साध्य और साधनके अधिनाभाव रूप सम्बन्धको ग्रहण नहीं किया है उसे पहली बार ही धुआँके देखते ही अग्निका अनुमान हो जाना चाहिए। पर जिस पुरुषने व्याप्तिको नहीं जाना है, उसे धूम अग्निका अनुमान नहीं कराता। इसलिए सपक्षसत्त्वको भी हेतुका स्वरूप मानना चाहिए। यदि विपक्षासत्त्वको हेतुका स्वरूप न माना जाय; तब धूमहेतुको साध्यसे शून्य अर्थात् विपक्षभूत जलादिमें भी अग्निका अनुमान करा देना चाहिए। पर धूम कभी भी जलाशय आदि विपक्षमें अग्निका अनुमापक नहीं होता। अतः विपक्षासत्त्व भी हेतुका स्वरूप है। अथवा,
१. पक्षधर्मिणि भ. २। २. "तत्र पक्षधर्मस्य साध्यमिणि प्रत्यक्षतोऽनुमानतो वा प्रसिद्धिः । यथा प्रदेशे धूमस्य शब्दे वा कृतकत्वस्य ।" -हेतुबि. पृ. ५३ । ३. धूमदर्शनं भ. २। ४. “साध्यधर्मसामान्येन समानोऽर्थः सपक्षः।-न्यायबि. २७ । ५. द्वितीयं नाम प. १, २, भ. २। ६."न सपक्षोऽसपक्षः । ततोऽन्यस्तद्विरुद्धस्तदभावश्चेति ।-न्यायषि. २१८९ । ७. -मनुमानयेत् भ.२.
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