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- का० १०.६८८]
बौद्धमतम् । स्वभावानुमानतयाभ्युपेते। तथाहि-ईदृशरूपान्तरोत्पादसमर्थः प्राक्तनो रूपक्षणः, ईदृशरसजनकत्वात्, पूर्वोपलब्धरूपवदिति रूपान्तरोत्पादरूपसामर्थ्यानुमानम्। योग्येयं प्रतिबन्धकविकला बोजादिसामग्री स्वकार्योत्पादने, समग्रत्वात्, पूर्ववृष्टबोजादिसामग्रोवदिति योग्यतानुमानम् । अतः स्वभावहेतुप्रभवे एवैते, न पुनः कारणात् कार्यानुमाने-इति ॥१०॥
$ ८७. अथानुपलब्ध्यादिभेदेन त्रिविधस्यापि लिङ्गस्य यानि त्रीणि रूपाणि भवन्ति तान्येवाह
रूपाणि पक्षधर्मत्वं सपक्षे विद्यमानता।
विपक्षे नास्तिता हेतोरेवं त्रीणि विभाव्यताम् ॥११॥ ६८८. व्याख्या-साध्यधर्मविशिष्टो धर्मो पक्षः, तस्य धर्मः पक्षधर्मः, तद्भावः पक्षधर्मत्वम् । पैक्षशब्देन चात्र केवलो धर्येवाभिधीयते, अवयवे समुदायोपचारात्। यदि पुनर्मुख्य एव साध्यधर्मविशिष्टो धर्मी पक्षो गृहयेत तदानुमानं व्यर्थमेव स्यात्, साध्यस्यापि धमिवत्सिद्धत्वात् । ततश्च
अनुमान तथा समग्रहेतुसे कार्योत्पादका अनुमान मानते हैं; वे दोनों अनुमान स्वभाव हेतुज अनुमानमें ही शामिल हो जाते हैं, यथा-पूर्व रूपक्षण ऐसे रूपान्तरको उत्पन्न करने में समर्थ है, क्योंकि उसने ऐसा रस उत्पन्न किया है, जैसे कि पहले उपलब्ध रूप। इस तरह पूर्वरूपमें रूपान्तरके उत्पन्न करनेकी सामर्थ्यका अनुमान स्वभाव हेतुसे ही किया गया है। यह प्रतिबन्धकोंसे शुन्य बोजादि सामग्री अपना कार्य निष्पन्न करनेकी योग्यतासे युक्त है, क्योंकि वह समग्र है, जैसे कि पहले देखी गयी बीजादि सामग्री अपने कार्यको उत्पन्न करती थी। इस तरह यहाँ भी स्वभाव हेतुसे ही योग्यताका अनुमान किया गया है। इस तरह उक्त अनुमानोंको स्वभाव हेतुज ही मानना चाहिए, इनको कारणसे होनेवाले कार्यानुमान रूप नहीं कह सकते ॥१०॥
८७. अब अनुपलब्धि आदिके भेदसे तीन प्रकारके हेतुओंके जो तीन रूप होते हैं उनका वर्णन करते हैं
हेतुके पक्षधर्मत्व, अर्थात् पक्षमें रहना, सपक्षमें विद्यमान होना तथा विपक्षसे व्यावृत्ति ये तीन रूप समझना चाहिए ॥११॥
८८. साध्यधर्मसे युक्त धर्मीको पक्ष कहते हैं, पक्षके धर्मको पक्षधर्म कहते हैं, अर्थात् हेतुका पक्षमें रहना। पक्षशब्द यद्यपि साध्यधर्मसे युक्त धर्मीमें रूढ़ है फिर भी यहाँ पक्ष शब्दसे केवल धर्मीका ही ग्रहण करना चाहिए। यहाँ अवयवभूत शुद्धधर्मी में समुदायवाची पक्षका उपचार करके पक्ष शब्दसे शुद्धधर्मीका कथन किया गया है। यदि साध्यधर्मसे विशिष्टधर्मी ही मुख्यरूपसे पक्षशब्दके द्वारा विवक्षित किया जाय तब अनुमान हो व्यर्थ हो जायेगा; क्योंकि पक्षके ग्रहण करते समय धर्मीको
स्वकार्य जनयन्ति । सामग्रोजन्मनां शक्तीनां परिणामापेक्षत्वात कार्योत्पादस्य । अत्रान्तरे च प्रतिबन्धसंभवात् न कार्यानुमानम् । " या तीयं अकार्यकारणभूतेनान्येन रसादिना रूपादिगतिः, सा कथं ? नैष दोषः । सापि-एकसामग्रयधीनस्य रूपादे रसतो गतिः। हेतुधर्मानुमानेन धूमेन्धनविकारवत् ॥११॥ तत्र हेतुरेव तथाभूतोऽनुमीयते । "शक्तिप्रवृत्त्या न विना रसः सैवान्यकारणम् । इत्यतीतैककालानां गतिस्तत् कायलिङ्गजा ॥ १२॥ प्रवृत्तशक्तिरूपोपादानकारणसहकारिप्रत्ययो हि रसं जनयति । इन्धनविकारविशेषोपादानहेतुसहकारिप्रत्याग्निधमजननतुल्यवत ।" -प्र. वा. स्व. ११९ - १२। १. -याभ्युपेयेते भ. २ । २. "त्ररूप्यं पुनलिङ्गस्यानुमेये सत्त्वमेव, सपक्ष एव सत्त्वम्, असपक्षे चासत्त्वमेव निश्चितम् ।" -न्यायबि. २५ । ३. "पक्षो धर्मी, अवयवे समुदायोपचारात् ।"-हेतुषि. पृ. ५१ ।
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