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________________ ६७ - का० १०.६८४] बौद्धमतम् । धूमादिना कचिदुपलब्धेन परोक्षः पदार्थो लिङ्गी वह्नयादिस्तत्र सन्' विज्ञायते। इदं च लिङ्गाल्लिङ्गिज्ञानमनुमानमभिधीयते। ६८३. तच्च द्वेधा-स्वार्थ पराथं च । यदा च त्रिरूपाल्लिङ्गात् स्वयं लिङ्गिनं साध्यं प्रतिपद्यते, तदा स्वार्थमनुमानम् । यदा तु परं प्रति साध्यस्य प्रतिपत्तये त्रिरूपहेत्वभिधानं तवा परार्थमनुमानमिति । 'लिङ्गिज्ञानं तु' इति, अत्र तुशब्दो विशेषणार्थ इदं विशिनष्टि। . १८४. अत्र यत्त्रिरूपं लिङ्ग लिङ्गिनो गमकमुक्तं तल्लिङ्गमनुपलब्धिस्वभावकार्यभेदात्त्रिधैव भवतीति । तत्रानुपलब्धिश्चतुर्षा वय॑ते मूलभेदापेक्षया। तद्यथा-विरुद्धोपलब्धिः, विरुद्धकार्योपलब्धिः, कारणानुपलब्धिः, स्वभावानुपलब्धिश्च । तत्र विरुद्धोपलब्धिर्यथा नात्र शीतस्पर्शोऽग्नेः । विरुद्धकार्योपलब्धियथा नात्र शीतस्पर्को धूमात्। कारणानुपलब्धिर्यथा नात्र धूमोऽग्न्यभावात् । स्वभावानुपलब्धिर्यथा नात्र धूम उपलब्धिलक्षणप्रातस्यानुपलब्धः। शेषास्तु सप्ताप्यनुलब्धयो धर्मबिन्दु (न्यायबिन्दु) प्रभृतिशास्त्रप्रतिपादितो एष्वेव चतुर्ष भेदेष्वन्तर्भवन्तीति है उसी तरह त्रिरूपवाले धूमादि लिंगोंके द्वारा परोक्ष अग्नि आदि पदार्थोंकी सत्ताका ज्ञान हो जाता है। यही लिंगसे होनेवाला लिंगि-साध्यका ज्ञान अनुमान कहलाता है। 3८३. वह अनुमान दो प्रकारका होता है-१ स्वार्थ और २ परार्थ । त्रिरूपलिंगको देखकर स्वयं लिंगि अर्थात् साध्यका ज्ञान करना स्वार्थानुमान है। जब परको साध्यका ज्ञान करानेके लिए त्रिरूप हेतुका कथन किया जाता है तब उस हेतुसे परको होनेवाला साध्यका ज्ञान परार्थानुमान कहलाता है । श्लोकमें आया हुआ 'तु' शब्द लिंगके भेदोंको सूचित करता है। ८४. श्लोक में जिस त्रिरूपवाले लिंगको साध्यका गमक कहा गया है वह लिंग तीन प्रकारका है-१ अनुपलब्धि हेतु, २ स्वभाव हेतु तथा ३ कार्यहेतु । अनुपलब्धि मूलभेदोंकी अपेक्षासे चार प्रकार की है-१ विरुद्धोपलब्धि, २ विरुद्धकार्योपलब्धि, ३ कारणानुपलब्धि तथा ४ स्वभावानुपलब्धि । विरुद्धोपलब्धि-यहां शीतस्पर्श नहीं है, क्योंकि शीतस्पर्शको विरोधी अग्नि मौजूद है। विरुद्धकार्योपलब्धि-यहाँ शीतस्पर्श नहीं है, क्योंकि शीतस्पर्शके विरोधी अग्निका कार्य धूम उपलब्ध हो रहा है। कारणानुपलब्धि-यहाँ धूम नहीं है, क्योंकि यहां धूमका कारण अग्नि नहीं पायी जाती । स्वभावानुपलब्धि-यहां धूम नहीं है क्योंकि उपलब्धि लक्षण प्राप्त होनेपर भी उसकी उपलब्धि नहीं हो रही है, अथवा दृश्य होकर भी वह उपलब्ध नहीं हो रहा है। उपलब्धि लक्षण प्राप्तका अर्थ है-धूमकी उपलब्धिकी यावत् सामग्रीका समवधान होना। अनुपलब्धिके शेष सात १. सद्विज्ञा-भ. २, क.। २. "अनुमानं द्विधा । स्वार्थ परार्थं च ।" -न्यायवि. २१,२। ३. "त्रिरूपाणि च त्रीण्येव लिङ्गानि । अनुपलब्धिस्वभावः कार्य चेति ।"-न्यायषि. ११०,११ । ४. -श्च । विरु-आ., क., प. १, २, भ.१। ५. “सा च प्रयोगभेदादेकादशप्रकारा ।३०। स्वभावानुपलब्धिर्यथा-नात्र धूम उपलब्धिलक्षणप्राप्तस्यानुपलब्धेरिति ।३१। कार्यानुपलब्धिर्यथा-नेहाप्रतिबद्धसामर्थ्यानि घूमकारणानि सन्ति, धूमाभावादिति ।३२॥ व्यापकानुपलब्धिर्यथा-नात्र शिशपा, वृक्षाभावादिति ।३३। स्वभावविरुद्धोपलब्धिर्यथा-नात्र शीतस्पर्शो वह्वेरिति ।३४॥ विरुद्धकार्योपलब्धिर्यथानात्र शीतस्पर्टी धूमादिति ।३५। विरुद्धव्याप्तोपलब्धिर्यथा-न ध्रुवभावी भूतस्यापि भावस्य विनाशः, हेत्वन्तरापेक्षणादिति ।३६। कार्यविरुद्धोपलब्धिर्यथा-नेहाप्रतिबद्ध सामर्थ्यानि शीतकारणानि सन्ति, वह्वेरिति ।३७ व्यापकविरुद्धोपलब्धिर्यथा-नात्र तुषारस्पर्शो वह्वेरिति ।३८। कारणानुपलब्धिर्यथानात्र धूमो वह्नयभावादिति ।३९। कारणविरुद्धोपलब्धिर्यथा-नास्थ रोमहर्षादिविशेषाः, सन्निहितदहनविशेषत्वादिति ।४०। कारणविरुद्ध कार्योपलब्धिर्यथा-न रोमहर्षादिविशेषयुक्तपुरुषवानयं प्रदेशः धूमादिति ४१ इमे सर्वे कार्यानुपलब्ध्यादयो दशानुपलब्धिप्रयोगाः स्वभावानुपलब्धी संग्रहमुपयान्ति ॥४२॥" -न्यायबि. सू.१०-१२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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