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यज्ज्ञानं तदनुमानसा
यार्थः। अत्र श्लोके चरमपातस्य
तथा त्रिरूपेण लिङ्गन
षड्दर्शनसमुच्चये
[ का० १०.६८२तदुक्तम्-"अतस्मिस्तद्ग्रहो भ्रान्तिरपि संधानतः प्रमा" [ ] इति । अमुमेवार्थ दृष्टान्तपूर्वकं [वि] निश्चये धर्मकीतिरकीर्तयत् । यथा
"मणिप्रदीपप्रभयोर्मणिबुद्धयाभिधावतोः। मिथ्याज्ञानाविशेषेऽपि विशेषोऽर्थक्रियां प्रति ॥ १ ॥ यथा तथाऽयथार्थत्वेऽप्यनुमानतदाभयोः।
अर्थक्रियानुरोधेन प्रमाणत्वं व्यवस्थितम् ।। २॥" [प्र. वा० २१९७५८ ] इति ॥ ६८२. अथानुमानलक्षणमाह
त्रिरूपाल्लिङ्गतो लिङ्गिज्ञानं त्वनुमानसंज्ञितम् ॥१०॥ "त्रिरूपाल्लिङ्गतः" इत्यादि । त्रीणि रूपाणि पक्षधर्मत्वादीनि वक्ष्यमाणानि यस्य तत् त्रिरूपं त्रिस्वभावमित्यर्थः। तस्मात्रिरूपाल्लिङ्गाखेतोः सम्यगवगताल्लिङ्गिन्नः परोक्षस्य वस्तुनो यज्ज्ञानं तदनुमानसंज्ञितं प्रमाणम् । अनु पश्चाल्लिङ्गग्रहणादनन्तरं परोक्षस्य वस्तुनो मानं ज्ञानमनुमानमिति हनुमानशब्दस्यार्थः। अत्र श्लोके चरमपादस्य नवाक्षरत्वेऽप्यार्षत्वान्न दोषः। इदमत्र तत्त्वम्-यथा जने छत्रादिलिङ्गदृष्टेलिङ्गी राजा निश्चीयते, तथा त्रिरूपेण लिङ्गन व्याप्तिके स्मरणकी भी सम्भावना नहीं है और जब व्याप्तिका ही स्मरण न होगा तब अनुमानकी उत्पत्ति कहाँसे होगी? इस तरह अनुमान यद्यपि भ्रान्त है फिर भी उसमें परम्परासे अर्थके साथ सम्बन्ध होनेके कारण प्रमाणता स्वीकार कर ली जाती है। कहा भी है
"अनुमान अतस्मिन् अर्थात् जो स्वलक्षण रूप नहीं है उस मिथ्या सामान्यमें तदग्रह अर्थात् स्वलक्षणात्मकताको ग्रहण करनेके कारण यद्यपि भ्रान्त है फिर भी पदार्थके साथ परम्परा सम्बन्ध होनेके कारण प्रमाण है।" इसी बातको धर्मकीर्तिने विनिश्चिय ग्रन्थमें दृष्टान्त देकर इस प्रकार समझाया है-"जैसे मणिकी प्रभामें होनेवाला मणिज्ञान तथा दीपककी प्रभामें होनेवाला मणिज्ञान ये दोनों ही ज्ञान आलम्बनकी दृष्टिसे भ्रान्त हैं फिर भी उक्त दोनों ज्ञानोंसे प्रवृत्ति करनेवाले पुरुषोंकी अर्थ-क्रियामें विशेषता होती ही है। अर्थात् मणिप्रभामें मणिबुद्धिवालेको मणिकी प्राप्ति हो जाती है पर प्रदीपप्रभामें मणिबुद्धि करनेवालेको मणि नहीं मिलती। उसी तरह अनुमान और अनुमानाभास यद्यपि दोनों मिथ्या हैं फिर भी अनुमानसे प्रवृत्ति करनेपर अर्थक्रिया हो जाती है अतः उसमें प्रमाणता है अनुमानाभासमें नहीं ॥२॥"
६८२. अब अनुमानका लक्षण कहते हैं
पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व तथा विपक्षासत्त्व इन तीन रूपवाले लिंगसे होनेवाला साध्यका ज्ञान अनुमान कहलाता है ॥१०॥
पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व तथा विपक्ष व्यावृत्ति इन तीन स्वभाववाले लिंगके यथार्थज्ञानसे परोक्ष साध्यके ज्ञानको अनुमान कहते हैं। लिंग जब अच्छी तरह ज्ञात हो जाता है तभी साध्यका ज्ञान करा सकता है। 'अनु अर्थात् लिंग-ज्ञानके पश्चात् परोक्ष वस्तुका मान अर्थात् ज्ञान, अनुमान कहलाता है' यह अनुमान शब्दका अर्थ है। यद्यपि इस श्लोकके चौथे पादमें नव अक्षर हैं, पर यह श्लोक ऋषिप्रणीत होनेसे शुद्ध ही है, उसमें कोई दोष नहीं है। जिस प्रकार किसी मनुष्यके ऊपर लगे हुए छत्र, चंवर आदि चिह्नोंसे 'यह राजा है' यह निश्चय होता
१. -संबन्धतः भ. २। २. "भ्रान्तिरपि च वस्तुसंबन्धेन प्रमाणमेव"-प्र. वार्तिकाल. ३११७५ । "तदाह न्यायवादी-भ्रान्तिरपि संबन्धतः प्रमा।" -न्यायषि. धर्मो. पृ. ७८ । उदधतमिदम"भ्रान्तिरपि अर्थसंबन्धतः प्रमा' -तत्वोप. पृ. ३० । सन्मति. टी. पृ. ४८६। सिद्धि वि. टी. प. ८२ । ३. -मानं तदा तयोः क., आ. । ४. तथानुमान-आ., क. । ५. "तत्र स्वार्थ त्रिरूपाल्लिङ्गाद् यदनुमेये ज्ञानं तदनुमानम् ।"-न्यायबि. २३ ।
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