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-का० १०.६८१]
बौद्धमतम् । अत एव सौगतैरिदमभिधीयते-दर्शनेन क्षणिकाक्षणिकत्वसाधारणस्यार्थस्य विषयोकरणात्; कुतश्चिभ्रमनिमित्तादक्षणिकत्वारोपेऽपि न दर्शनमक्षणिकत्वे प्रमाणं किन्तु प्रत्युताप्रमाणम्, विपरीता'ध्यवसायाक्रान्तत्वात्, क्षणिकत्वेऽपि न तत् प्रमाणम् अनुरूपाध्यवसायाजननात् । नीलरूपे तु तथाविनिश्चयकरणात्प्रमाणमिति। ततो युक्तमुक्तं निर्विकल्पकमभ्रान्तं च प्रत्यक्षमिति ।।
८१. अत्र 'अभ्रान्तम्' इति विशेषणग्रहणादनुमाने च तदग्रहणादनुमानं भ्रान्तमित्यावेदयति । तथाहि-भ्रान्तमनुमानम्, सामान्यप्रतिभासित्वात्, सामान्यस्य च बहिःस्वलक्षणे व्यतिरेकाव्यतिरेकविकल्पाभ्यामपाक्रियमाणतयाऽयोगात्, सामान्यस्य स्वलक्षणरूपतयानुमानेन विकल्पनात् । अतस्मिन्नस्वलक्षणे तद्ग्रहस्य स्वलक्षणतया परिच्छेदस्य भ्रान्तिलक्षणत्वात् । प्रामाण्यं पुनः प्रणालिकया बहिःस्वलक्षणबलायातत्वावनुमानस्य । तथाहि-नार्थ विना तादाम्यतदुत्पत्तिरूपसंबन्धप्रतिबद्धलिङ्गसद्भावः, न तद्विना तद्विषयं ज्ञानम्, न तज्ज्ञानमन्तरेण प्रागवधारितसंबन्धस्मरणम, तदस्मरणे नानुमानमित्यर्थाव्यभिचारित्वाद् भ्रान्तमपि प्रमाणमिति संगीयते।
समाधान-निविकल्पक दर्शनके द्वारा जिस समय पदार्थक क्षणिकत्वका अनुभव होता है ठीक उसी समय उस पदार्थको पूर्वदेश सम्बन्धिता, पूर्वकाल सम्बन्धिता तथा पूर्वदशाका स्मरण होता है और उससे यह मालूम होने लगता है कि-'यह वही पदार्थ है जो उस वेशमें था, यह वही पदार्थ है जो पहले भी मौजूद था, यह वही पदार्थ है जो उस अवस्थामें था' इत्यादि। यही स्थिरताका स्मरण 'क्षणिकमिदम्' इस विकल्पज्ञानको नहीं होने देता। इसीलिए बौद्ध कहते हैं कि-निर्विकल्पक दर्शनके द्वारा तो क्षणिक और अक्षणिक उभय साधारण वस्तुमात्रका ग्रहण होता है, अतएव बादमें किसी विभ्रम निमित्तसे वस्तुमें अक्षणिकत्वका आरोप हो जाय तब भी निविकल्पको अक्षणिक अंश में प्रमाण नहीं माना जा सकता, बल्कि विपरीत अध्यवसायसे युक्त होनेके कारण वह अक्षणिक अंशमें अप्रमाण ही है। क्षणिक अंशमें भी वह प्रमाण नहीं है। क्योंकि उसने 'क्षणिकमिदम्' इस प्रकारके अनुकूल विकल्पको उत्पन्न नहीं किया। वह तो केवल नीलांशमें 'यह नील है' इस प्रकारके अनुकूल विकल्पको उत्पन्न करनेके कारण प्रमाण है । इसलिए ठीक ही कहा है कि अभ्रान्त निर्विकल्पक ज्ञान प्रत्यक्ष है।
१८१, प्रत्यक्षके लक्षणमें 'अभ्रान्त' विशेषणका ग्रहण किया गया है तथा अनुमानके लक्षणमें ऐसा कोई विशेषण नहीं है, इसलिए सूचित होता है कि-अनुमान भ्रान्त है । वह इस प्रकारअनुमान भ्रान्त है क्योंकि वह सामान्य पदार्थको विषय करता है। सामान्य पदार्थ तो 'वह स्वलक्षणरूप व्यकियोंसे भिन्न है या अभिन्न' इत्यादि विकल्पोंसे खण्डित हो जानेके कारण सिद्ध नहीं होता परन्तु अनुमान उस मिथ्या सामान्यको ही स्वलक्षण रूपसे ग्रहण करता है। इसलिए अतस्मिन्-जो स्वलक्षण नहीं है ऐसे सामान्यमें तद्ग्रह-स्वलक्षण रूपसे परिच्छेद करना ही तो अनुमानकी भ्रान्तता है । यद्यपि अनुमान उक्तरूपसे भ्रान्त है फिर भी वह परम्परासे बाह्य स्वलक्षणके बलसे उत्पन्न होता है अतएव प्रमाण है । वह इस प्रकार-यदि स्वलक्षणरूप धूमादि अथं न हों तब तादात्म्य या तदुत्पत्तिरूप अविनाभाव सम्बन्ध रखनेवाले लिंगको ही सम्भावना नहीं है। जब लिंग ही नहीं है तब लिंगज्ञान कैसे होगा? लिंगज्ञानके अभावमें पहले निश्चित की गयी
१. -तावसाया-प. १, २, म. १, २ । २. "तथा अभ्रान्तग्रहणेनाप्यनुमाने निवतिते कल्पनापोढग्रहणं विप्रतिपत्तिनिराकरणार्थम् । भ्रान्तं हि अनुमानं स्वप्रतिभासेऽनर्थेऽर्थाध्यवसायेन प्रवृत्तत्वात् । प्रत्यक्षं तु ग्राह्ये रूपे न विपर्यस्तम् ।" -न्यायबि. टी. पृ. ४०। ३.-स्य हि बहिः भ. २। ४. "तथाऽनुमानमपि स्वप्रतिभासेऽनर्थेऽर्थाध्यवसायेन प्रवृत्तेरनर्थग्राहि । स पुनरारोपितोऽर्थो गृह्यमाणः स्वलक्षणत्वेनावसीयते यतः, ततः स्वलक्षणमवसितं प्रवृत्तिविषयोऽनुमानस्य । अनर्थस्तु ग्राह्यः।" न्यायबि. टी. पृ.७१ । ५.-या वा परि-भ.२ ६.-बलाषानत्वाद-भ. २। ७.-बन्धलिङ्ग-भ. २।
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