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________________ षड्दर्शनसमुच्चये [का० १०.६८०शकटलकुटादिस्थूलार्थप्रतिभास इति चेत्, निरालम्बन एवायमनादिवितथवासनाप्रवर्तितस्थूलाविभासो निविषयत्वादाकाशकेशवत्स्वप्नज्ञानवद्वेति । यदुक्तम्-- "बाहयो न विद्यते यर्थों यथा बालविकल्प्यते । वासनालुठितं चित्तमर्थाभासे प्रवर्तते ॥१॥" इति । "नान्योऽनुभाव्यो बुद्धयास्ति तस्या नानुभवोऽपरः । ग्राहयग्राहकवेधुर्यात्स्वयं सैव प्रकाशते ॥२॥" [प्र. वा. २३३२७ ] इति च । $८०. ननु प्रत्यक्षेण क्षणक्षयिपरमाणुस्वरूपं स्वलक्षणं कथं संवेद्यत इति चेत् । उच्यतेप्रत्यक्षं हि वर्तमानमेव सन्निहितं वस्तुनो रूपं प्रत्येति, न पुनर्भावि भूतं तत्, असन्निहितत्वात्तस्य। तहि प्रत्यक्षानन्तरं नीलरूपतानिर्णयवत्क्षणक्षयनिर्णयः कुतो नोत्पद्यत इति चेत् । उच्यते-तदैव स्मृतिः पूर्वदेशकालदशासंबन्धितां वस्तुनोऽध्यवस्यन्ती क्षणक्षयनिर्णयमुत्पद्यमानं निवारयति । बिना ही नाना प्रकारके स्थूल पदार्थों का प्रतिभास होता है। जिस प्रकार स्वच्छ आकाशमें केशका प्रतिभास होता है अथवा स्वप्नमें नाना प्रकारके अर्थोंका विचित्र प्रतिभास होता है उसी प्रकार ये घट-पटादि स्थूल प्रतिभास निरालम्बन निविषय तथा मिथ्या है। कहा भी है "बाल "बाल अर्थात् मिथ्या वासनासे कलुषित अज्ञानी लोग जिस-जिस स्थिर. स्थल आदि रूपसे पदार्थों की कल्पना करते हैं वस्तुतः अर्थ उस रूपसे किसी भी तरह बाह्यमें अपनी सत्ता नहीं रखता। सत्य तो यह है कि हमारी मिथ्यावासनाके कारण चित्त ही उन-उन अर्थोके आकारसे प्रतिभासित होता है ॥१॥ तथा, "बुद्धिके द्वारा अनुभाव्य-अनुभव करने योग्य कोई ग्राह्य पदार्थ नहीं है और न बुद्धिको ग्रहण करनेवाला अन्य कोई ग्राहक अनुभव ही है। अतः यह बुद्धि ग्राह्य-ग्राहक भावसे रहित होकर स्वयं ही प्रकाशमान होती है ॥२॥" ६८०. शंका-प्रत्यक्षके द्वारा क्षणिक परमाणुरूप स्वलक्षणका अनुभव कैसे होता है ? समाधान-प्रत्यक्ष वस्तुके सन्निहित-सामने उपस्थित तथा वर्तमान रूपको ही जानता है। वह वस्तुके अतीत तथा भविष्यत् रूपको नहीं जान सकता; क्योंकि ये स्वरूप न तो सन्निहित हो हैं और न वर्तमान हो। पदार्थके शुद्ध वर्तमान रूपका प्रतिभास हो उसकी क्षणिकताका प्रतिभास है। शंका-यदि प्रत्यक्षसे क्षणिकताका ज्ञान हो जाता है तब जिस प्रकार नील प्रत्यक्षसे नीलरूपताका निर्णय करनेवाला 'नीलमिदम्' यह विकल्पज्ञान उत्पन्न होता है उसी तरह प्रत्यक्षके बाद ही उसकी क्षणिकताका निश्चय करनेवाला 'क्षणिकमिदम्' यह विकल्प क्यों नहीं उत्पन्न होता? १. "तस्मादनादितथाभूतानुमानपरम्पराप्रवृत्तमनुमानमाश्रित्य बहिरर्थकल्पनायां ग्राह्यग्राहकसंवेदनकलानाप्रवृत्तः ग्राह्यादिकल्पना, परमार्थतः संवेदनमेवाविभागमिति स्थितम् ।" -प्र. वार्तिकाल. प. ३९८ । युक्त्योपपन्ना हि सती प्रकल्प्य यद्वासनामर्थनिराक्रियेयम् । तथापि बाह्याभिनिवेश एष जगद् ग्रहग्रस्तमिदं समस्तम् ॥ तस्माद्विभक्त आकारः सकलो वासनाबलात् । बहिरर्थत्वरहितस्ततोऽनालम्बना मतिः ॥ अत एव सर्वे प्रत्यया अनालम्बनाः प्रत्ययत्वात्स्वप्नप्रत्ययवदिति प्रमाणस्य परिशुद्धिः। तथा हीदमेवानालम्बनत्वं यदात्माकारवेदनत्वम् ।-प्र. वार्तिकाळ. प. ३५९। २. -मर्थों भाव: प्र. भ. २ । ३. -तते ॥१॥ नान्यो-आ.। ४. तस्य भ. २। ५. 'नान्योऽनुभाव्यस्तेनास्ति तस्य नानुभवोऽपरः । तस्यापि तुल्यचोद्यत्वात् स्वयं सैव प्रकाशते ॥" -प्र. वा. २।३२७ । ६. तदैवं स्मृ-मा.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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