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-का० १०.६७९]
बौद्धमतम्। योगिज्ञानस्य मानसत्वप्रसङ्गो निरस्तः। समनन्तरप्रत्ययशब्दः स्वसंतानतिन्युपादाने ज्ञाने रूढचा प्रसिद्धः। ततो भिन्नसन्तानवतियोगिज्ञानमपेक्ष्य पृथग्जनचित्तानां समनन्तरव्यपदेशो नास्ति । सर्वचित्तचैत्तानामात्मसंवेदनं स्वसंवेदनम्। चित्तं वस्तुमात्रग्राहकं ज्ञानम्, चित्ते भवाश्चैत्ता वस्तुनो विशेषरूपग्राहकाः सुखदुखोपेक्षालक्षणाः तेषामात्मा येन संवेद्यते तत् स्वसंवेदनमिति । भूतार्थभावनाप्रकर्षपर्यन्तजं योगिज्ञानम्। भूतार्थः प्रमाणोपपन्नार्थः, भावना पुनः पुनश्चेतसि समारोपः। भूतार्थभावनाप्रकर्षपर्यन्ताज्जातं योगिज्ञानम् ।
७९. ननु यदि क्षणक्षयिणः परमाणव एव तात्त्विकास्तहि किन्निमित्तोऽयं "घटपटकट. इन्द्रियज्ञानमें ही कारण होता है अतः मानसज्ञानकी उत्पत्तिमें उसी विषयका द्वितीय क्षण ही सहकारी हो सकता है। 'इन्द्रियज्ञानरूप समनन्तर प्रत्ययसे उत्पन्न होता है' इस विशेषणसे योगिज्ञानमें मानस प्रत्यक्षत्वका प्रसंग नहीं आ सकता, क्योंकि योगिज्ञान में इन्द्रियप्रत्यक्ष उपादान कारण नहीं होता (वह तो भावनाप्रकर्षसे उत्पन्न होता है)। समनन्तरप्रत्यय शब्द का प्रयोग अपनी ही सन्तान में होनेवाले उपादानभूत पूर्वक्षण में रूढिसे होता है अतः हम लोगोंके ज्ञानका साक्षात्कार करनेवाले योगिज्ञान में, हमारे ज्ञान भिन्नसन्तानवर्ती होनेके कारण समनन्तर प्रत्ययउपादान कारण नहीं होते, हमारे ज्ञान तो योगिज्ञानमें विषय-विधया कारण होते हैं, अतः वे योगिज्ञानके प्रति आलम्बन प्रत्यय हो हो सकते हैं। चित्त अर्थात् केवल वस्तुको विषय करनेवाला ज्ञान तथा चैत्त अर्थात् वस्तुके विशेषोंको ग्रहण करनेवाला ज्ञान सुख-दुःख-उपेक्षारूप ज्ञान । समग्र चित्त और चैत्तके स्वरूपका संवेदन स्वसंवेदन प्रत्यक्ष कहा जाता है। चित्त अर्थात् वस्तु मात्रको ग्रहण करनेवाले ज्ञान, चित्तमें होनेवाले चैत्त अर्थात् वस्तुके विशेष रूपको ग्रहण करनेवाले सुख-दुःख तथा उपेक्षात्मक ज्ञान, इन दोनोंके स्वरूपका संवेदन स्वसंवेदन प्रत्यक्ष कहलाता है। भूतार्थ-वास्तविक क्षणिक निरात्मक आदि अर्थों की प्रकृष्ट भावनासे योगिप्रत्यक्ष उत्पन्न होता है । भूतार्थ-प्रमाणसिद्ध पदार्थोंकी भावना-चित्तमें बार-बार विचार जब प्रकृष्ट होता है तब उससे योगिज्ञानकी समुत्पत्ति होती है।
७९. शंका-यदि क्षणिक परमाणु रूप अर्थ ही तात्त्विक है तब घट, पट, चटाई, गाड़ी, लाठी आदि स्थल अर्थाका प्रतिभास कैसे होता है ?
समाधान वस्तुतः घट-पटादि स्थूल पदार्थ हैं ही नहीं। यह तो हमारी अनादिकालीन मिथ्यावासनाका ही विचित्र परिपाक हो रहा है जो हम लोगोंको किसी वास्तविक आलम्बनके
१. "सर्वचित्तचत्तानामात्मसंवेदनम् ॥१०॥ सर्वचित्तेत्यादि । चित्तम् अर्थमात्रग्राहि । चैत्ता विशेषावस्थाग्राहिणः सूखादयः । सर्वे च ते चित्तचैत्ताश्व सर्वचित्तचेताः । सुखादय एव स्फुटानुभवत्वात स्वसंविदिताः, नान्या चित्तावस्थेत्येतदाशङ्कानिवृत्त्यर्थं सर्वग्रहणं कृतम् । नास्ति सा काचित् चित्तावस्था यस्यामात्मनः संवेदनं न प्रत्यक्षं स्यात् । येन हि रूपेणात्मा वेद्यते तद्रूपमात्मसंवेदनं प्रत्यक्षम् ।" -न्यायवि., टी ।।१०। २. वस्तुविशेष-आ., क. । ३. -दनं भूता-प. १, २, भ. १, २। ४. "भूतार्थ भावनाप्रकर्षपर्यन्तजं योगिज्ञानं चेति ।११। भूतः सद्भुतोऽर्थः । प्रमाणेन दृष्टश्च सद्भूतः । यथा चत्वार्यायंसत्यानि । भूतस्य भावना पुनः पुनश्चेतसि विनिवेशनम् । भावनायाः प्रकर्षो भाव्यमानार्थाभासस्य ज्ञानस्य स्फुटाभवारम्भः । प्रकर्षस्य पर्यन्तो यदा स्फुटामत्वमीषदसंपूर्ण भवति । यावद्धि स्फुटाभत्वमपरिपूर्ण तावत् तस्य प्रकर्षगमनम् । संपूर्ण तु यदा तदा नास्ति प्रकर्षगतिः। ततः संपूर्णावस्थायाः प्राक्तन्यवस्था स्फुटाभत्वप्रकर्षपर्यन्त उच्यते । तस्मात् पर्यन्ताद् यज्जातं भाव्यमानस्यार्थस्य संनिहितस्येव स्फुटतराकारग्राहिज्ञानं योगिनः प्रत्यक्षम् ।" -न्यायबि. टी. १। ५. -पटशकटक.। -पटकटलकुटा भ. ।
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