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________________ प्रस्तावना पं. दलसुख मालवणिया डायरेक्टर, ला. द. भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर, अहमदाबाद प्रास्ताविक षड्दर्शनसमुच्चय मूल और गुणरत्नकृत टीकाका अनुवाद श्री पं. महेन्द्र कुमारजो ने ता. २५-६-४० चार बजे पूरा किया था ऐसी सूचना उनको पाण्डुलिपिसे मिलती है। और टिप्पण लिखनेका कार्य उन्होंने ई. १९५९ में अपनी मृत्यु ( ई. १९५९ जून ) के कुछ मास पूर्व किया ऐसा डॉ. गोकुलचन्द्रजीकी सूचनासे प्रतीत होता है । टिप्पणीके लिखनेमें डॉ. गोकुलचन्द्रजीने सहायता की थी ऐसा भी उनसे मालूम हुआ है। अनुवाद करके उन्होंने छोड़ रखा था और प्रकाशककी तलाश थी यह तो मैं जानता हूँ । किन्तु खेद इस बातका है कि उनके जीवनकालमें इस ग्रन्थको वे मुद्रित रूपसे देख नहीं सके। और इस कार्यको मित्रकृत्यके रूपमें करने में दुःखमिश्रित सन्तोषका अनुभव मैं कर रहा हूँ। उनको जो सामग्री मुझे मिली उसे ठीक करके, यत्र-तत्र संशोधित करके मैंने प्रेस-योग्य बना दी थी। कुछ पृष्ठोंके प्रूफ भी मैंने देखे और पूरे ग्रन्धके प्रूफ मुद्रण-कार्य शीघ्र हो इस दृष्टिसे मेरे पास भेजे नहीं गये । आनन्द इस बातका है कि मेरे परम मित्रका यह कार्य पूरा हो गया। यह भी आनन्दका विषय है कि इसका प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठसे हो रहा है । ज्ञानपीठके आरम्भ कालसे ही उनका सम्बन्ध ज्ञानपीठसे एक या दूसरे रूपमें रहा है। अकलंकके कई ग्रन्थोंका उद्धार पं. महेन्द्रकुमारजीने किया और ज्ञानपीठने उनका प्रकाशन किया-उससे दोनोंकी प्रतिष्ठा बढी। इतने उत्त रूपसे भारतीय दर्शनोंके ग्रन्थ प्रायः नहीं मुद्रित होते । तुलनात्मक टिप्पणी देकर दर्शनग्रन्थोंका सम्पादन पूज्य पं. सुखलालजी ने शुरू किया था। उसी पद्धतिका अनुसरण करके पं. महेन्द्रकुमारजीने जिस उत्तम रीतिसे उन ग्रन्थोंका सम्पादन किया और ज्ञानपीठने उन्हें सुन्दर रूपसे छापा यह तो भारतीय दर्शन ग्रन्थके प्रकाशनके इतिहासमें सुवर्ण पृष्ठ है । उन ग्रन्थोंके जरिये भारतीय दर्शनोंके तुलनात्मक अध्ययनको प्रगति मिली है-यह निःसंशय है। पं. महेन्द्रकुमारजी जीवित होते तो प्रस्तुत षड्दर्शनसमुच्चयकी प्रस्तावना कैसी लिखते यह नहीं कहा जा सकता किन्तु यहाँ जो लिखा जा रहा है उससे तो बढ़कर होती इसमें सन्देह नहीं है। - षड्दर्शनसमुच्चय और उसकी वृत्तिके संशोधनमें उपयुक्त हस्तप्रतियोंके विषयमें मेरे समक्ष पं. महेन्द्रकुमारजीके द्वारा लिखित कोई सामग्री नहीं आयी अतएव यह कहना कठिन है कि उन्होंने तत्-तत् संज्ञाओंके द्वारा निर्दिष्ट कौन-सी प्रतियोंका उपयोग किया है। किन्तु इतना तो निश्चित है कि उन्होंने अच्छी हस्तप्रतियोंका उपयोग प्रस्तुत ग्रन्थके संशोधनमें किया है और उसे शद्ध करनेका पूरा प्रयत्न किया उनके द्वारा सम्पादित अन्य अन्योंकी तरह इसमें भी उन्होंने महत्त्वपूर्ण तुलनात्मक टिप्पण अन्य ग्रन्थोंसे उद्धृत किये हैं। संकेत सूचीके आधारपर-से एक तालिका तैयार की गयी है जिससे वाचकको पता लगेगा कि प्रस्तुत ग्रन्थ संशोधनके लिए उन्होंने कितना परिश्रम किया है। उन्होंने विविध ग्रन्योंके कौनसे संस्करणोंका टिप्पणी में उपयोग किया है-यह भी पता लगाकर निर्दिष्ट किया गया है। १. 'षड्दर्शनसमुच्चय' गुजराती अनुवादक : श्री चन्द्रसिंह सूरि, प्रकाशक-जैन तत्त्वादर्श सभा, अहमदाबाद, ई. १८९२; अष्टकप्रकरणके साथ, प्रकाशक : क्षेमचन्द्रात्मजो नारायणः, सूरत, ई. १९१८, हरिभद्रसूरिग्रन्थमालामें प्र. जैन धर्मप्रसारक सभा, भावनगर, विक्रम सं. १९६४ ( ई. १९०७ )। [२] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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