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षड्दर्शनसमुच्चय कन्ट्रीव्यूशन टुवर्डस् एन इण्डेक्स टु दि बिबिलियोग्राफी आफ द इण्डियन फिलासफोकल सिस्टमस्, कलकत्ता १८५९ में किया है । उसके बाद एफ. एल. पुलेने हरिभद्रके विषयमें कुछ सूचनाएं संगृहीत की तथा मूल और टीकाका अध्ययन जारी रखा। जिओरनाल डेला सोसाइटिआ एशियाटिका इटालियन वालुम १, पृष्ठ ४७-७३, वालुम ८, पृष्ठ १५९-१७७, वालुम ९, पृष्ठ १-३२, वालुम ११, पृष्ठ २२५-३६, फ्लोरेन्ज १८८७, १८९५-९६-९९)। एल. सुआलीने इसके एक भागका इटालियन अनुवाद एशियाटिक सोसाइटी आफ इटलीके उपर्यक्त जरनल भाग १७, पष्ठ २४२-७१ फिरेन्ज १९०४ में प्रस्तुत किया तथा गुणरत्नकृत टीकाके साथ मूलका सम्पादन बिब्लोथिका इण्डिका, कलकत्ता १९०५ में किया ।
कुछ समय पूर्व डॉ. के. एस. मूर्तिने इसका नोट्स के साथ अंगरेजी में अनुवाद किया है और 'ए कम्पेण्डियम आफ सिक्स फिलासफोज'के नामसे टैगोर पब्लिशिंग हाउस, तेनाली १९५७ में प्रकाशित किया है।
स्वर्गीय पण्डित महेन्द्रकुमार उन कतिपय नैसगिक प्रतिभाशाली विद्वानोंमें-से एक थे, जिन्होंने हमें जैन न्यायके अनेक ग्रन्थोंके आदर्श संस्करण दिये। जैसे न्यायविनिश्चयविवरण भाग १-२, राजवात्तिक भाग १-२ और सिद्धिविनिश्चय भाग १-२ जो इस ग्रन्थमाला में प्रकाशित हैं। उनने सिंघी जैन सीरिज, बम्बई १९३९ के लिए अकलंकग्रन्थत्रयम् तथा माणिकचन्द्र दि. जैन ग्रन्थमाला बम्बई १९४१ के लिए
मदचन्द्रका सम्पादन किया। और निर्णयसागर प्रेस, बम्बई १९४१ के लिए प्रमेयकमलमार्तण्डका सम्पादन किया। ये संस्करण उनकी दुरूह ग्रन्थोंकी तलस्पर्शी विद्वत्ता को व्यक्त करते है और उन्होंने पं. सुखलालजीको प्रेरणासे तुलनात्मक टिप्पणोंकी जो परम्परा उद्भावित की वह उनके समस्त भारतीय ज्ञानके विशाल अध्ययनकी साक्षी है। उनके दुःखद अवसानके समाचार सुनकर प्रो. डॉ. ई. फाउवालनर, आस्ट्रिया ने उनके विषयमें मुझे लिखा था (उनका पत्र ७-३-१९६०) 'पण्डित महेन्द्रकुमारजीका निधन जैन विद्याके लिए एक बहुत बड़ी क्षति है। वे आश्चर्यकारी विद्वत्ताके धनी एक अच्छे पण्डित थे।'
स्व. पं. महेन्द्रकुमारजी द्वारा सम्पादित तथा हिन्दी अनुवाद सहित षड्दर्शनसमुच्चयका गुणरत्न तथा सोमतिलककी टीकाओं तथा अज्ञातकर्तृक अवचूणिके साथ यह संस्करण प्रकाशित करते हुए ग्रन्थमाला सम्पादकोंको हार्दिक प्रसन्नता है। पण्डित दलसुख मालवणियाने पण्डित महेन्द्रकुमारजी की सामग्री लिए पुनरवलोकन किया तथा वर्तमान रूपमें इसके प्रकाशनके लिए महती सहायता की। उन्होंने हिन्दीमें विद्वत्तापूर्ण प्रस्तावना भी लिखी है । यह सन्तोषका विषय है कि हम दोनोंके समान मित्र पण्डित महेन्द्रकुमारजीका यह अन्य समुचित रूपमें उस ग्रन्थमालामें प्रकाशित हो रहा है जिसके प्रारम्भिक विकासकी शुरूआत स्वयं उन्हीं के हाथोंमें हुई थी।
हम श्रीमान् साहू शान्तिप्रसादजी तथा उनकी विदुषो पत्नी श्रीमती रमाजीके प्रति अपना आभार व्यक्त करते हैं जो इस ग्रन्थमालाकी प्रगतिमें गहरी रुचि लेते तथा ऐसे ग्रन्थोंके प्रकाशनके लिए उदारतापूर्वक सहायता करते हैं। हम पं. दलसुख मालवणियाके उदार सक्रिय सहयोगके लिए आभारी हैं।
हम श्री लक्ष्मीचन्द्रजी जैनको सोत्साह मार्गदर्शनके लिए धन्यवाद देते हैं तथा डॉ. गोकुलचन्द्र जैनको भी जिन्होंने एकसे अधिक तरहसे इस प्रकाशनमें सहयोग किया, विशेष रूपसे अनुक्रमणिका आदि तैयार करनेमें।
कोल्हापुर १० फरवरी १९७०
-हीरालाल जैन -आ. ने. उपाध्ये
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