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प्रधान सम्पादकीय
यद्यपि हरिभद्र (७५० ई. अनुमानित) ने अपने पीछे आत्मपरिचयात्मक विवरण अत्यल्प ही छोड़ा है, तथापि उनके संस्कृत और प्राकृतमें निबद्ध प्रायः अनेक विषयके आकर ग्रन्थोंकी एक लम्बी श्रेणी भारतीय साहित्यमें उनका एक महान व्यक्तित्व स्थापित करती है। (ह. याकोवी : समाराइच्चकहा प्रस्तावना, बिब्लोथिका इण्डिका, नं० १९७, कलकत्ता १९२६, सुखलालजी संघवी : समदर्शी आचार्य हरिभद्र, राजस्थान ओरियण्टल सीरिज सं. ६८, जोधपुर १९६३)। यद्यपि उनका योगदान मुख्यतया जैनधर्मसे सम्बन्धित है तथापि अध्ययनके क्षेत्र में उनका अधिकार व्यापक था। वह अर्धमागधी आगम ग्रन्थोंके सर्वप्रथम संस्कृत टीकाकार हैं। दूसरे दिङ्नागके न्यायप्रवेशपर उनकी टीका इस बातका स्पष्ट प्रमाण है कि
ता केवल धार्मिक दायरे तक ही सीमित नहीं थी। तीसरे वैदिक पराण तथा दार्शनिक सम्प्रदायोंपर उनका महान् अधिकार था, जैसा कि उनके धूर्ताख्यान तथा शास्त्रवार्तासमुच्चयसे स्पष्ट है। चौथे उनके प्रकरणोंसे ज्ञात होता है कि किस प्रकार वे जैन सिद्धान्तोंकी व्याख्यामें यहाँ तक कि संवर्द्धन और आपूर्ति में व्यापक विद्वत्ता तथा नवीन बुद्धिको ला रहे थे, जैसा कि उनके योगके विवेचनमें देखा जाता है। पांचवें निश्चय ही उनका तलस्पर्शी मस्तिष्क अनेकान्तकी संचेतनासे झंका था. जिसने अनेक जैन सिद्धान्तोंकी सुस्पष्ट व्याख्या की, पृथक्ताके लिए नहीं प्रत्युत तुलना तथा यदि आवश्यक हआ तो अन्य सिद्धान्तोंके विवेकसे खण्डन करनेके लिए। छठे वे एक कुशल कथाकार तथा प्रौढ़ धार्मिक गुरु हैं। अन्ततः भारतीय सा हत्यमें वह अपने षड्दर्शनसमुच्चयमें छह दर्शनोंके संक्षिप्त सारको प्रदान करनेवाले व्यक्तियोंमें अग्रगामी व्यक्ति हैं।
सामान्यतया भारतमें धार्मिक दार्शनिकोंने अपने दर्शनके अतिरिक्त अन्य सिद्धान्तोंका अध्ययन, सत्यको खोजके सन्दर्भ में तुलनात्मक अध्ययनके लिए उन्हें समझनेकी अपेक्षा उनकी आलोचना या खण्डनके लिए अधिक किया। सम्भवतया हरिभद्र एक गणनीय अपवाद हैं। उनका षड्दर्शनसमुच्चय छह दर्शनोंबौद्ध, नैयायिक, सांख्य, जैन, वैशेषिक तथा जैमिनीयका आधिकारिक विवरण देनेवाला प्राचीनतम ज्ञात संग्रह है। उनकी परिगणना रूढ़िवादियोंसे भिन्न है और यह वास्तव में सम्पूर्ण भारतीय धर्म-दर्शनोंके विवेचनकी दृष्टिसे विस्तृत है।
इस प्रकारके सार संग्रह लिखनेके विचारका अपना महत्त्व है और पण्डित दलसुख मालवणियाने अपनी हिन्दी प्रस्तावनामें इसका विवरण दिया है कि इस प्रकारके अन्य कितने ग्रन्थ लिखे गये।
हरिभद्रके षड्दर्शनसमुच्चयको गुणरत्नसूरि एक सुयोग्य टीकाकार प्राप्त हुए और उनकी टीका तर्करहस्यदीपिका पर्याप्त विस्तृत है। उनकी व्याख्यामें हमें प्राप्य कतिपय विवरणोंकी अपनी विशेषताएँ हैं। वे सन् १३४३ से १४१८ के बीच हुए। उनके तथा उनकी कृतियोंके विषयमें आवश्यक विवरण पण्डित मालवणियाकी हिन्दी प्रस्तावनामें दिये गये हैं। गुणरत्नसरि कृत तर्करहस्यदीपिकाके अतिरिक्त सोमतिलक कृत लघुवृत्ति तथा अज्ञात लेखककी अवचूर्णी भी प्रस्तुत संस्करणमें शामिल की गयी हैं। . षड्दर्शनसमुच्चय और तर्करहस्यदीपिकाने बहुत पहलेसे प्राच्य विद्याविदोंका ध्यान आकर्षित किया है, क्योंकि हरिभद्रको कृति भारतीय दर्शनोंका एक अच्छा गुटका है और गुणरत्नको टोका उसकी एक सुललित व्याख्या है। एफ. हालने षड्दर्शनसमुच्चय तथा चारित्रसिंहगणि कृत इसकी वृत्तिका उल्लेख 'ए
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