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षड्दर्शनसमुच्चय
प्रस्तुत ग्रन्थ में परिशिष्टरूपसे मणिभद्रकृत संक्षिप्त टीका और अज्ञातकर्तृक अवचूरि भी मुद्रित की गयी है । उनका संशोधन भी पं. महेन्द्र कुमारजीने किया था । मणिभद्रकृत टीका वस्तुतः सोमतिलकसूरिकी रचना है यह स्पष्टीकरण करना जरूरी है । इसकी चर्चा आगे की गयी है ।
उन्होंने इस ग्रन्थकी प्रस्तावना लिखी थी कि नहीं यह पता नहीं लगता । जो सामग्री मेरे समक्ष आयी उसमें तो उसकी कोई सूचना है नहीं । अतएव मैंने प्रस्तावनाके रूपमें थोड़ा लिख देना उचित समझा है ।
ज्ञानपीठ के संचालकोंने मित्रकृत्य करनेका यह शुभ अवसर दिया एतदर्थ मैं ग्रन्थमाला के सम्पादकोंका और ज्ञानपीठके संचालकोंका आभारी हूँ ।
षड्दर्शन
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दर्शनोंकी छह संख्या कब निश्चित हुई उसका इतिहासमें पक्का पता नहीं लगता । विद्यास्थानों की गिनती के प्रसंग में दर्शनों या तर्कोंकी संख्याकी चर्चा होने लगी थी इतना ही कहा जा सकता है । छान्दोग्य उपनिषद् (७-१-२ ) में अध्ययनके अनेक विषयोंकी गिनती में वाकोवाक्यका उल्लेख मिलता है । उसका अर्थ है वाद-प्रतिवाद । परन्तु अर्थशास्त्रमें आन्वीक्षिकी आदि चार ही विद्याओंका उल्लेख है तथा विद्या में भी सांख्य, योग और लोकायतोंका उल्लेख है तथा आन्वीक्षिकी के विषय में कहा है
प्रदीपः सर्वविद्यानामुपायः सर्वकर्मणाम् । आश्रयः सर्वधर्माणां शश्वदान्वीक्षिकी मता ॥ स्मृतियों में याज्ञवल्क्यस्मृति ( १-३ ) में १४ विद्यास्थानोंको गिनाया है, उनमें केवल न्याय और मीमांसाका उल्लेख है। पुराणोंमें भी जहाँ विद्याओं का उल्लेख है वहाँ भी प्रायः याज्ञवल्क्यस्मृतिका अनुसरण है । न्यायभाष्यकार वात्स्यायनने तो न्यायशास्त्रको ही आन्वीक्षिकी विद्या माना है। उनका कहना है कि "सेयमान्वीक्षिकी प्रमाणादिभिः पदार्थैविभज्यमाना
प्रदीपः सर्वविद्यानामुपायः सर्वकर्मणाम् । आश्रयः सर्वधर्माणां विद्योद्देशे प्रकीर्तिता ॥ "
- न्यायभाष्य १.१.१.
वात्स्यायन ने ठीक ही कहा है क्योंकि त्रयी हो या वार्ता या दण्डनीति- इन सभी विद्याओंके विषय में आन्वीक्षिकी ही निर्णायक है - ऐसा कौटिल्यका मत है— क्योंकि आन्वीक्षिकी हीके द्वारा अर्थात् हेतुप्रयोग द्वारा तीनों विद्याओंका अन्तिम ध्येय सिद्ध होता है । सुखके अवसरपर या आपत्तिके अवसर में बुद्धिको स्थिर रखनेवाली आन्वीक्षिकी ही है । प्रज्ञामें, वचनमें और क्रियामें वैशारद्य आन्वीक्षिकीके कारण ही आता है । अतएव आन्वीक्षिकी सर्वविद्याओं की विद्या है । सब विद्याओंके लिए प्रदीप है । सांख्य हों या योग या लोकायत -- ये सभी आन्वीक्षिकीका आश्रय लेकर ही अपनी बातको सिद्ध करते थे अतएव कौटिल्यने भले उन तीनोंका नाम आन्वीक्षिकीमें गिनाया किन्तु उन तीनोंका आधार आन्वीक्षिकी अर्थात् न्यायविद्या ही है । वे प्रमाण, न्याय या तर्कका आश्रय लेकर ही अपनी बातको सिद्ध कर सकते हैं ऐसा अभिमत न्यायभाष्यकारका है । इस परसे हम कह सकते हैं कि कौटिल्य के समय तक भले ही न्यायशास्त्रको पृथक् दर्शनके रूपमें स्थान मिला नहीं था किन्तु आन्वीक्षिकीके रूपमें उसकी सत्ता माननी चाहिए । न्यायशास्त्र में जब वैशेषिक दर्शनको समान तन्त्र माना जाने लगा तब वह सब विद्याओंका आधार रूप न रहकर एक स्वतन्त्र दर्शन बन गया । यही
१. कौटिलीय अर्थशास्त्र - १-२ ( कांगले ) । २. हिस्ट्री ऑफ धर्मशास्त्र भा. ५, पृ. ८२०, ९२६, ११५२ । ३. सांख्यं योगो लोकायतं चेत्यान्वीक्षिकी । १० । धर्माधर्मो त्रय्यामर्थानर्थो वार्तायां नयापनयो austicयां बलाबली चैतासां हेतुभिरन्वीक्षमाणा लोकस्योपकरोति व्यसनेऽभ्युदये च बुद्धिमवस्थापयति प्रज्ञावाक्य क्रियावैशारद्यं च करोति ॥ ११॥ -- कौटिलीय अर्थशास्त्र १।२ ।
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