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________________ षड्दर्शनसमुच्चये [ का० १०.६७६ - प्रकारान्तरसंभवः। तद्यया पीतादौ नीलप्रकारव्यवच्छेदेनानीलप्रकारव्यवस्थायाम् । अस्ति च प्रत्यक्षपरोक्षयोरन्यतरप्रकारव्यवच्छेदेनेतरप्रकारव्यवस्था व्यवच्छिद्यमानप्रकाराविषयीकृते सर्वस्मिन्प्रमेय इति विरुद्धोपलब्धिः, तक्तत्प्रकारयोः परस्परपरिहारस्थितलक्षणत्वात् । अतः प्रमेयान्तराभावान्न प्रमाणान्तरभावः। उक्तं च "न प्रत्यक्षपरोक्षाभ्यां मेयस्यान्यस्य संभवः । तस्मात्प्रमेयद्वित्वेन प्रमाणद्वित्वमिष्यते ॥१॥" [ प्र. वा. २।६३ ] इति ।। अत्र शाब्दोपमानार्थापत्यभावाविप्रमाणान्तराणां निराकरणम् प्रत्यक्षानुमानयोरन्तर्भावनं वो यथा भवति, तथा प्रमाणसमुच्चयादिबौद्धग्रन्थेभ्यः संमत्यादिनन्थेभ्यो वावगन्तव्यम् । ग्रन्थगौरवभयात्तु नोच्यते । ततः स्थितमेतत्-प्रत्यक्षानुमाने द्वे एव प्रमाणे इति ॥९॥ ६७६. अथ प्रत्यक्षलक्षणमाह-- प्रत्यक्ष कल्पनापोढमभ्रान्तं तत्र बुध्यताम् । निषेध होता है वहां अनीलताका विधान तथा जहां अनीलताका निषेध होता है वहां नीलताका सद्भाव अपने ही आप हो जाता है। अनुमानका प्रयोग इस प्रकार है-'जहाँ एक प्रकारका निषेध करके दूसरे प्रकारको व्यवस्था होती है वहां उन दोसे भिन्न ततीय प्रकारको सम्भावना नहीं है, जैसे पीत आदिमें नीलवका व्यवच्छेद करके अनीलताका विधान होनेपर नीलता और अनीलतासे भिन्न किसी तृतीय प्रकारको सम्भावना नहीं होती । प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप प्रकार भी एक-दूसरेका व्यवच्छेद करके स्वरूपकी व्यवस्था करते हैं अतः संसारके सभी प्रमेयोंमें या तो प्रत्यक्षताका व्यवच्छेद करके परोक्षता होगी अथवा परोक्षताका व्यवच्छेद करके प्रत्यक्षता फलित होगी, इन दोसे भिन्न किसी तीसरे प्रकारको सम्भावना नहीं की जा सकती।' यह हेतु विरुद्धोपलब्धिरूप है। तत्प्रकार-प्रत्यक्ष और अतत्प्रकार परोक्ष एक-दूसरेका परिहार करके अपनी स्थिति रखते हैं। इस तरह जब तीसरा प्रमेय ही नहीं है तब तृतीय प्रमाणको सम्भावना ही नहीं की जा सकती। कहा भी है "चूंकि प्रत्यक्ष और परोक्षसे भिन्न कोई तीसरा प्रमेय ही नहीं है अतः दो प्रमेय होनेसे दो ही प्रमाण माने जाते हैं।" आगम, उपमान, अर्थापत्ति तथा अभाव आदि प्रमाणान्तरोंका निराकरण तथा इनका इन्हीं प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणमें अन्तर्भाव करनेकी प्रणाली प्रमाणसमुच्चय आदि बौद्धग्रन्थोंसे सन्मतितर्क आदि जैन ग्रन्थोंसे जान लेनी चाहिए। ग्रन्थका कलेवर न बढ़े इसलिए इस संक्षिप्त ग्रन्थमें उन विस्तृत चर्चाओंको नहीं लिखते हैं। अतः यह सिद्ध हुआ कि-प्रत्यक्ष और अनुमान दो हो प्रमाण हैं। 5७६. अब प्रत्यक्षके लक्षणका निरूपण करते हैंकल्पनापोढ अर्थात् निर्विकल्पक तथा भ्रान्तिसे रहित अभ्रान्त ज्ञानको प्रत्यक्ष कहते हैं। १. -वनं यथा भ. २। २. द्रष्टव्यम्-सन्मति टी. पृ. ५७३-५९० । प्रमेयक. पृ. १८२-१९५। न्याय कुमु. पृ. १८९-५।९। ३. "प्रत्यक्ष कल्पनापोढं नामजात्याद्यसंयुतम् ॥" -प्र. समु. १३ । "तत्र प्रत्यक्ष वल्पनाऽपोढमभ्रान्तम् ॥" न्यायबि. १।४। "प्रत्यक्षं कल्पनापोढमभ्रान्तमभिलापिनी । प्रतीतिः कल्पना बलप्तिहेतुत्वाद्यात्मिका न तु ।" -तत्त्वसं. श्लो. १२१४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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