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· षड्दर्शनसमुच्चये
[का०९.६७३मिति स्वभावहेतुः । यच्च यत्रान्तर्भूतं तस्य न ततो बहिर्भावः यथा प्रसिद्धान्तर्भावस्य कचित्कस्यापि, अन्तर्भूतं चेदं प्रत्यक्षादन्यत्प्रमाणमनुमानमिति स्वभावविरुद्धोपलब्धिः, अन्तर्भावबहिवियोंः परस्परपरिहारस्थितलक्षणतया विरोधात् ।।
७३. आह परः-भवतु परोक्षविषयस्य प्रमाणस्यानुमानेऽन्तर्भावः, अर्थान्तरविषयस्य च शब्दादेस्तस्यान्तर्भावो न युक्त इति चेत्; न; प्रत्यक्ष-परोक्षाभ्यामन्यस्य प्रमेयस्यार्थस्याभावात्,प्रमेयरहितस्य च प्रमाणस्य प्रामाण्यासम्भवात्, प्रमीयतेऽनेनार्थ इति प्रमाणमिति व्युत्पत्या सप्रमेयस्यैव तस्य प्रमाणत्वव्यवस्थितेः । तथाहि-यदविद्यमानप्रमेयं न तत् प्रमाणं यथा केशोण्डुकादिज्ञानम्, अविद्यमानप्रमेयं च प्रमाणद्वयातिरिक्तविषयतयाभ्युपगम्यमानं प्रमाणान्तरमिति कारणानुपलब्धिः, प्रमेयस्य साक्षात्पारम्पर्येण वा प्रमाणं प्रति कारणत्वात् । तदुक्तम्-"नाननुकृतान्वयव्यतिरेक कारणम्, नाकारणं विषयः" इति । रूप विकल्पज्ञान, सांख्य आदिके द्वारा माने गये शब्दादि भी अप्रत्यक्ष पदार्थको विषय करनेवाले प्रमाण हैं। ( अतः अनुमानमें ही उनका अन्तर्भाव होना चाहिए )' यह स्वभाव हेतु है । '( आगमादि अनुमानसे अतिरिक्त नहीं हैं, क्योंकि वे उसीमें अन्तर्भूत हो जाते हैं ) जिसका जिसमें अन्तर्भाव होता है वह उससे अतिरिक्त प्रमाण नहीं कहा जा सकता जैसे प्रत्यक्षमें अन्तर्भूत चाक्षुषप्रत्यक्ष, प्रत्यक्षसे भिन्न समस्त शब्दादि प्रमाण भी चूंकि अनुमानमें ही अन्तर्भूत हैं ( अतः अनुमानसे भिन्न प्रमाण नहीं हो सकते )।' यह स्वभावविरुद्धोपलब्धि है। अन्तर्भाव तथा बहिर्भावका परस्परपरिहारस्थिति (जहां अन्तर्भाव होगा वहाँ बहिर्भाव नहीं होगा तथा जहाँ बहिर्भाव होगा वहाँ अन्तर्भाव नहीं होगा) रूप विरोध है। यहाँ बहिर्भावका जो विरुद्ध स्वभाव अन्तर्भाव उपलब्ध होता है वह अपने विरोधी बहिर्भावका प्रतिषेध सिद्ध करता है। अतः यह हेतु स्वभावविरुद्धोपलब्धि रूप है।
७३. शंका-यह तो उचित है कि परोक्षको विषय करनेवाले प्रमाणका अनुमानमें अन्तर्भाव हो, पर आगम आदि प्रमाण तो भिन्न प्रकारके ही पदार्थों को विषय करते हैं अतः उनका भी अनुमानमें अन्तर्भाव करना किसी भी तरह उचित नहीं कहा जा सकता?
समाधान-यद शंका तो तब ठीक होती जब प्रत्यक्ष और परोक्ष इन दोसे भिन्न कोई तीसरा प्रमेय होता, जिसको कि विषय करनेके कारण आगम आदिको स्वतन्त्र प्रमाण घोषित किया जाय । प्रमेयके बिना तो प्रमाणमें प्रमाणता ही नहीं आ सकती। जिसके द्वारा प्रमेय जाना जाता है वह प्रमाण है' यह प्रमाण शब्दकी व्युत्पत्ति भी उसके प्रमेयाविनाभावको बता रही है। अतः जिसका प्रमेय विद्यमान है वही प्रमाण हो सकता है। जिस ज्ञानका प्रमेय विद्यमान नहीं है वह प्रमाण नहीं हो सकता जैसे स्वच्छ आकाश में होनेवाला केश तथा मच्छरके आकारवाला ज्ञान, चूंकि प्रत्यक्ष और अनुमानसे भिन्न आगम आदि प्रमाणोंके विषय भी अविद्यमान हैं ( अतः वे प्रमाण नहीं हो सकते )' यह हेतु कारणानुपलब्धि रूप है। पदार्थ कहीं साक्षात् और कहीं परम्परासे प्रमाणमें कारण होता ही है। कहा भी है-"जिसका जिसके साथ अन्वय और व्यतिरेक नहीं है वह उसका कारण नहीं हो सकता तथा जो पदार्थ ज्ञानका कारण नहीं है वह ज्ञानका विषय भी नहीं हो सकता।" इस तरह प्रमाणमें कारणभूत प्रमेयको अनुपलब्धि होनेसे शब्द आदिमें प्रमाणता का निषेध कारणानुपलब्धि रूप हेतुसे किया गया है।
१.-भावोऽयुक्तः प. १, २, भ. १,२। २. -तस्य च प्रामा-म. २। ३. कारणं विषयः म. २। ४. "अहेतुश्च विषयः कथम्"-प्र. वा. ३१४०६ । “नाहेतुविषयः"-प्र. वार्तिकार. ३१४०६ । “न ह्यकारणं प्रतीतिविषयः"-हेतुबि. टी. प.01 "नाननुकृतान्वयव्यतिरेक कारणं नाकारणं विषयः"। -न्यायकुमु. पृ. ६१० । सन्मति. टी. पृ. ५१० । सिद्धिवि. टी. पू. १०८। प्र. मी. पू. ३४ ।
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