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- का०९.६७२]
बौद्धमतम् । यादन्यः सर्वोऽपि परोक्षो विषयः। ततो विषयद्वैविध्यात्तग्राहके सम्यग्ज्ञाने अपि द्वे एव भवतो न न्यूनाधिके । तत्र यत् परोक्षार्थविषयं सम्यग्ज्ञानं तत् स्वसाध्येन मिणा च संबद्धादन्यतः सकाशात्सामान्येनाकारेण परोक्षार्थस्य प्रतिपत्तिरूपम्, ततस्तदनुमानेऽन्तर्भूतमिति प्रत्यक्षानुमानलक्षणे द्वे एव प्रमाणे । तथाहि-न परोक्षोऽर्थः साक्षात्प्रमाणेन प्रतीयते, तस्यापरोक्षत्वप्रसक्तेः। विकल्पमात्रस्य च स्वतन्त्रस्य राज्याविविकल्पवदप्रमाणत्वात, परोक्षार्थाप्रतिबद्धस्यावश्यतया तदव्यभिचाराभावात् । न च स्वसाध्येन विना भूतोऽर्थः परोक्षार्थस्य गमकः, अतिप्रसक्तेः। धर्मिणा चासंब. द्धस्यापि गमकत्वे प्रत्यासत्तिविप्रकर्षाभावात् स सर्वत्र प्रतिपत्तिहेतुर्भवेत् । ततो यदेवंविधार्थप्रति. पत्तिनिबन्धनं प्रमाणं तदनुमानमेव, तस्यैवलक्षणत्वात् । तथा च प्रयोगः-यदप्रत्यक्ष प्रमाणं तदनुमानान्तर्भूतं यथा लिङ्गबलभावि, अप्रत्यक्षप्रमाणं च शाब्दाविकं प्रमाणान्तरत्वेनाभ्युपगम्यमानरूप विशेष-स्वलक्षण तो प्रत्यक्षका विषय होता है तथा बुद्धिप्रतिबिम्बित अन्यापोहात्मक सामान्य अनुमानका विषय होता है। इस तरह विषयको द्विविधतासे प्रमाणके द्वैविध्यका अनुमान किया जाता है। प्रत्यक्ष सामान्य पदार्थको तथा अनुमान स्वलक्षणरूप विशेष पदार्थको विषय नहीं कर सकता। प्रत्यक्षके विषयभूत अर्थसे भिन्न सभी अर्थ परोक्ष हैं। इस प्रकार विषयोंके दो प्रकार होनेसे उनका ग्राहक सम्यग्ज्ञान भी दो प्रकारका है। वह न तो एक प्रकारका है और न तीन प्रकारका । इनमें जो सम्यग्ज्ञान परोक्ष पदार्थको विषय करता है वह अनुमानमें अन्तर्भूत होता है। क्योंकि वह अपने साध्यभूत पदार्थसे अविनाभाव रखनेवाले तथा नियतधर्मी में विद्यमान लिंगके द्वारा परोक्षार्थका सामान्य रूपसे अविशद ज्ञान करता है। अतः प्रत्यक्ष और अनुमान दो ही प्रमाण हैं। वह इस प्रकार-परोक्ष पदार्थ प्रमाणके द्वारा साक्षात्-विशेषरूपसे तो प्रतीत होता ही नहीं है। यदि साक्षात् प्रतीत होने लगे तो वह परोक्ष ही नहीं रहेगा किन्तु प्रत्यक्ष कोटिमें आ जायगा। अनुमान एक विकल्प ज्ञान है। जो विकल्प ज्ञान निर्विकल्पसे उत्पन्न नहीं होकर मात्र वासनासे स्वतन्त्र भावसे उत्पन्न होता है वह तो प्रमाण ही नहीं है। जैसे मनमें 'मैं राजा हूँ' ऐसा विकल्पज्ञान किसी राज्य-जैसे पदार्थको साक्षात्कार करनेवाले प्रत्यक्षसे उत्पन्न न होकर अपने ही आप वासना-विशेषसे मनमें उद्भूत होता है अतः यह प्रमाण नहीं है। इसी तरह जो विकल्प परोक्ष अर्थके साथ अविनाभाव नहीं रखता वह विकल्प नियमसे अविसंवादी नहीं हो सकता। जो लिंगभूत अर्थ अपने साध्यके अभावमें भी हो जाता है उससे अपने साध्यका नियमपूर्वक ज्ञान नहीं हो सकता। असम्बद्ध लिंगसे अनुमान माननेपर तो चाहे जिस लिंगसे जिस किसी भी साध्यका अनुमान हो जाना चाहिए। इसी तरह नियत धर्मी के साथ सम्बन्ध नहीं रखनेवाले हेतुसे यदि साध्यका अनुमान हो तो महानस में उपलब्ध होनेवाले धूमसे हिमालय पर्वतमें या सुमेरुपर्वतमें भी अग्निका अनुमान होना चाहिए; क्योंकि धर्मीसे असम्बद्ध हेतुकी किसी खास धर्मीसे प्रत्यासत्तिनिकटता या किसी अविवक्षित धर्मीसे विप्रकर्ष-दूरी नहीं कही जा सकती। वह तो सभी धर्मियोंसे असम्बद्ध है अतः उसे जिस किसी भी धर्मीमें साध्यका अनुमान करा देना चाहिए। अतः अपने साध्यके साथ अविनाभाव रखनेवाले तथा नियतधर्मी में विद्यमान लिंगसे होनेवाले जितने भो सम्यक् अविसंवादी विकल्प ज्ञान हैं वे सब अनुमान प्रमाणमें ही अन्तर्भूत हैं। क्योंकि 'अविनाभावी साधनसे नियतधर्मीमें साध्यके ज्ञानको अनुमान कहते हैं।' यही अनुमानका परिष्कृत लक्षण है। उपर्युक्त विवेचनके आधारसे हम ये निश्चित अनुमान बना सकते हैं-(आगमादि अनुमानमें अन्तर्भूत हैं, क्योंकि वे अप्रत्यक्ष पदार्थको ही विषय करनेवाले प्रमाण हैं ) जो अप्रत्यक्ष पदार्थको विषय करनेवाले प्रमाण हैं वे अनुमानमें हो अन्तर्भूत हैं जैसे कि लिंगदर्शनसे होनेवाला अनुमान
१.-णा वा सम्बन्धस्यापि भ. २।-णा वा सम्बद्धस्यापि प. १,२।
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