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षड्दर्शनसमुच्चये
[ का० ९.६७२ध्यमनेकधा च सम्यग्ज्ञानमाहुः, अतो नियतद्वैविध्यप्रदर्शनेनैकत्वबहुत्वे सम्यग्ज्ञानस्य प्रतिक्षिपति । एवं चायमेवकारो विशेषणेन विशेष्येण क्रियया च सह भाष्यमाणः क्रमेणायोगान्ययोगात्यन्तायोगव्यवच्छेदकारित्वात् त्रिधा भवति यद्विनिश्चयः
"अयोगं योगमपरैरत्यन्तायोगमेव च।। व्यवच्छिनत्ति धर्मस्य निपातो व्यतिरेचकः ॥१॥".. निपात एवकारः, व्यतिरेचको निवर्तकः"विशेषणविशेष्याभ्यां क्रियया यः सहोदितः। विवक्षातोऽप्रयोगेऽपि तस्यार्थोऽयं प्रतीयते ॥२॥ व्यवच्छेदफलं वाक्यं यतश्चैत्रो धनुर्धरः।
पार्थो धनुर्धरो नीलं सरोजमिति वा यथा ॥३॥" [प्र. वा. ४।१९०-९२ ] ६७२. सम्यग्ज्ञानस्य च द्वैविध्यं प्रत्यक्षपरोक्षविषयद्वैविध्यादवसेयम् । यतोऽत्र प्रत्यक्षविष.
समाधान-आपको शंका उचित नहीं है, क्योंकि-'सभी वाक्य सावधारण हैं' इससे जिनकी आशंका होती है उन्हींका व्यवच्छेद किया जाता है। वाक्यका प्रयोग दूसरेको समझानेके लिए किया जाता है, इसलिए दूसरा जिन भिन्न धर्मोकी आशंका करता है उन्हींका व्यवच्छेद किया जाता है। 'चैत्रो धनुर्धरः' यहां चैत्रमें धनुर्धरत्वके अभावकी आशंका की गयी थी इसलिए धनुर्धरत्वके अभावका हो व्यवच्छेद किया जायेगा अन्य शौर्यादि धर्मोका नहीं। 'दो ही हैं' यहां चार्वाक प्रमाणकी एक संख्या तथा सांख्यादि प्रमाणकी तीन आदि संख्याएं मानते हैं, अतः नियत द्वित्वसंख्याके प्रदर्शनसे सम्यग्ज्ञानमें आशंकित एकत्व तथा त्रित्व आदि संख्याओंका व्यवच्छेद किया जाता है । इस तरह एवकार तीन प्रकारका होता है। जब यह विशेषणके साथ प्रयुक्त होता है तब अयोगव्यवच्छेदका बोध कराता है। ( अयोगव्यवच्छेद-विशेषणके अयोग-असम्बन्ध या अभावका व्यवच्छेद करनेवाला) जब यह विशेष्यके साथ प्रयुक्त होता है तब अन्ययोगव्यवच्छेदका बोध कराता है। (अन्ययोगव्यवच्छेद-प्रकृत विशेष्यसे अन्य विशेष्यमें विशेषणोंके योग-सम्बन्धका निराकरण करनेवाला)। तथा जब यह एवकार क्रियाके साथ प्रयुक्त होता है तब अत्यन्तायोगव्यवच्छेदका बोधक होता है । अत्यन्तायोगव्यवच्छेद-अत्यन्त अयोग-असम्बन्धका व्यवच्छेद अर्थात् निराकरण करनेवाला। विनिश्चय ग्रन्थमें भी कहा है
"व्यतिरेचक अर्थात् व्यावृत्ति करनेवाला एवकार निपात, विशेषणके साथ प्रयुक्त होकर अयोगका, विशेष्यके साथ कहा हुआ अपरसे योग-अर्थात् अन्ययोगका, तथा क्रियाके साथ प्रयुक्त होकर अत्यन्तायोगका व्यवच्छेद करता है ॥१॥"
"यद्यपि वाक्योंमें एवकारका प्रयोग न भी किया जाय तो भी उसका उक्त अर्थ विवक्षासे ही अपने आप प्रतीत हो जाता है, क्योंकि सभी वाक्य व्यवच्छेद करानेवाले होते हैं। अयोगव्यवच्छेद-जैसे 'चैत्र धनुर्धर ही है। यहां चैत्रमें धनुर्धरत्वके अयोग-असम्बन्ध या अभावका व्यवच्छेद करके चैत्रमें धनुर्धरत्वके सद्भावका अवधारण किया गया है। अन्ययोगव्यवच्छेद-जैसे 'पार्थ ही धनुर्धर है' यहां पार्थ-अर्जुनसे अन्य व्यक्तिमें धनुर्धरत्वके योग-तादात्म्यादिसम्बन्धका व्यवच्छेद करके पार्थ हो में धनुधरत्वका तादात्म्य सम्बन्ध दिखाया गया है। अत्यन्तायोगव्यवच्छद 'जैसे सरोज नील होता ही है। यहां सरोजमें नीलत्व धर्मके अत्यन्त अयोग अर्थात् असम्बन्धका व्यवच्छेद करके पूर्णरूपसे 'होता ही है' इस रूपसे होने रूप क्रियाका अवधारण किया गया है ।।२-३।।
६७२. यतः विषय प्रत्यक्ष और परोक्ष रूपसे दो ही प्रकारके हैं, इसलिए भी उन दो प्रकारके विषयोंको जाननेवाला सम्यग्ज्ञान दो ही प्रकारका हो सकता है। बौद्धके मतमें क्षणिक परमाणु
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