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षड्दर्शनसमुच्चये
[ का० ८.६६८प्रापकत्वेन प्रमाणम्, तत्प्रदर्शितस्य देशाधनियतस्यार्थस्यासत्त्वेन प्राप्नुमशक्तेः । तत्प्रदर्शितार्थस्यानियतत्वं च साक्षात्पारंपर्येण वा प्रतिपाद्यादेरर्थस्यानुपपत्तेः। ततः स्थितं प्रदर्शितार्थप्रापणशक्तिस्वभावमविसंवादकत्वं प्रामाण्यं द्वयोरेव ।
६८. प्रापणशक्तिश्च प्रमाणस्याविनाभावनिमित्तं दर्शनपृष्ठभाविना विकल्पेने निश्चीयते । तथाहि-प्रत्यक्षं दर्शनापरनामकं यतोऽर्थादुत्पन्नं तद्दर्शकमात्मानं स्वानुरूपावसायोत्पादनानिश्चिन्वदर्थाविनाभावित्वं प्रापणशक्तिनिमित्तं प्रामाण्यं स्वतो निश्चिनोतीत्युच्यते, न पुनर्जानान्तरं तन्निश्चायंकमपेक्षतेऽर्थानुभूताविव । ततोऽविसंवादकत्वमेव प्रमाणलक्षणं युक्तम् ॥८॥
$६९ अथ प्रमाणस्य विशेषलक्षणं विवक्षुः प्रथमं प्रमाणसंख्यां नियमयन्नाहमें रहती है । अतः जैसी अनियतदेशादिवाली वस्तुका शब्द प्रतिपादन करता है वैसी वस्तु प्राप्त नहीं होती क्योंकि वह है ही नहीं तथा जैसी नियतदेशादिवाली प्राप्त होती है वैसी वस्तुका कथन करना शब्दकी सामर्थ्यके परेकी बात है। शब्दके द्वारा प्रतिपाद्य वस्तु अनियतदेशादिमें न तो साक्षात् उपलब्ध होती है और न परम्परासे हो । तात्पर्य यह कि जब वस्तु अनियतदेशादिवाली है ही नहीं तब वैसी वस्तुका प्रतिपादक शब्द कैसे तो प्रापक होगा तथा किस प्रकार उसे प्रमाण कहेंगे? अतः यह सिद्ध हुआ कि-प्रदर्शित अर्थके प्राप्त करनेको शक्तिको अविसंवादकता कहते हैं और ऐसी अविसंवादकतारूप प्रमाणता प्रत्यक्ष और अनुमान इन दो ज्ञानोंमें ही है।
६८. प्रमाणकी प्रापणशक्तिका अर्थसे. अविनाभाव है। उसका निश्चय निर्विकल्पक दर्शनके बाद होनेवाले विकल्प ज्ञानके द्वारा होता है। वह इस प्रकार-दर्शन नामक प्रत्यक्ष प्रमाण स्वयं क्योंकि अर्थसे उत्पन्न हुआ है, अर्थका दर्शक बनता है-इस बातका अपने में निश्चय अपने अनुरूप विकल्पकी उत्पत्तिके द्वारा कर लेता है और यही उसके प्रामाण्यका स्वतः निश्चय है क्योंकि किसी ज्ञानमें प्रापण शक्ति ही प्रामाण्यका निमित्त है और वह प्रापण शक्ति तब ही होती है जब ज्ञानका अर्थके साथ अविनाभाव हो अर्थात् वह अर्थसे साक्षात् या परम्प्रासे उत्पन्न हुआ हो । सारांश यह है कि-निर्विकल्पकदर्शन प्रत्यक्ष कहा जाता है। यह निर्विकल्पक प्रत्यक्ष स्वलक्षणरूप परमार्थसत् अर्थसे उत्पन्न होता है। यह निर्विकल्प जिस अर्थसे उत्पन्न होता है, उत्तरकालमें उसीके अनुकूल विकल्पको भी पैदा करता है। नीलनिर्विकल्पकमें नील अर्थसे उत्पन्न होनेका नियम नीलनिर्विकल्पकसे उत्पन्न होनेवाले 'नीलमिदम्' इस अर्थानुसारी विकल्पके द्वारा किया जाता है। इस तरह निर्विकल्पक प्रत्यक्ष अपने अनन्तरभावी विकल्पके द्वारा अपनी अर्थाविनाभाविताका निश्चय करता है। यही अर्थाविनाभाविताका तथा तद्रूप प्रापणशक्तिका और तन्निमित्तक प्रमाणताका निश्चय कर लेता है। जिस तरह स्वलक्षणका अनुभव करनेके लिए निर्विकल्पकको अन्य ज्ञानकी आवश्यकता नहीं है उसी तरह उसे अपनी प्रमाणताके निश्चयके लिए भी अन्य ज्ञानकी अपेक्षा नहीं होती। इस तरह अविसंवादकत्व ही प्रमाणका निर्दोष लक्षण हो सकता है ।।८।।
६ ६९. अब प्रमाण विशेषके लक्षणोंका कथन करनेके पहले प्रमाणकी संख्याका नियमन करते हैं
१. निमित्तदर्श-आ., क.। २. अविकल्पमपि ज्ञानं विकल्पोत्पत्तिशक्तिमत् । निःशेषव्यवहाराङ्ग तद्वारेण भवत्यता॥"-तत्वसं. इको. १३०६ ।
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