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-का०८.६६७] बौद्धमतम् ।
५३ मानस्य तु लिङ्गदर्शनेन विकल्प्यः स्वाकारो ग्राह्यो न बाह्योऽर्थः, प्राप्यस्तु बाह्यः स्वाकाराभेदेनाध्यवसित इति । तद्विषयमस्यापि प्रदर्शितार्थप्रापकत्वं प्रामाण्यम् । तदुक्तम्-"न ह्याभ्यामर्थ' परिच्छिद्य प्रवतमानोऽर्थक्रियायां विसंवाद्यते"
$ ६७. प्राप्यमाणं च वस्तु नियतदेशकालाकारं प्राप्यत इति तथाभूतवस्तुप्रदर्शकयोः प्रत्यक्षानुमानयोरेव प्रामाण्यं न ज्ञानान्तरस्य । तेन पीतशङ्खादिग्राहिज्ञानानामपि प्रापकत्वात्प्रामाण्यप्रसक्तिन भवति, तेषां प्रशितार्थाप्रापकत्वात्। यददेशकालाकारं हि वस्तु तैः प्रदर्शितं, न तत्तथा प्राप्यते, यच्च यथा प्राप्यते न तैस्तत्तथा प्रदर्शितम्, देशाविभेदेन वस्तुभेवस्य 'निश्चितत्वादिति न तेषां प्रदर्शितार्थप्रापकता, ततो न प्रामाण्यमपि । नापि प्रमाणद्वयव्यतिरिक्तं शब्दादिकं प्रदर्शितार्थ
[प्रश्न-अनुमानका विषय अग्नि सामान्य आदि हैं और सामान्य पदार्थ आपके मतसे अन्यापोहरूप है। अन्यापोहका तात्पर्य है विकल्प बद्धिमें कल्पित या प्रतिबिम्बित अनुगत आकार। इस तरह अनुमानका विषय अन्ततः विकल्पबुद्धि में प्रतिबिम्बित आकार ही होता है । अतः जब अनुमान बाह्य स्वलक्षणको विषय ही नहीं करता तब उसमें अर्थप्रापकत्वरूप अविसंवादित्व कैसे सिद्ध होता है ?]
उत्तर-अनुमानात्मक विकल्प लिंगदर्शनसे उत्पन्न होता है। अतः उस अनुमान विकल्पका ग्राह्य विषय विकल्प्य स्वीकार होता है। बाह्यार्थ नहीं। तात्पर्य यह है कि अनुमानविकल्पका आलम्बनीय विषय तो सामान्य पदार्थ अर्थात् विकल्पबुद्धिमें प्रतिबिम्बित स्वाकार होता है। किन्तु प्राप्य विषय तो बाह्य स्वलक्षण ही होता है। इस प्राप्य बाह्यस्वलक्षणका आलम्बनीभूत स्वाकारके साथ जिसे "मैंने जिसका अनुमान किया था उसे ही प्राप्त कर रहा हूँ" ऐसा एकत्वाध्यवसाय करके प्रवत्ति करनेपर अर्थप्रापकता सिद्ध हो जाती है। अतः अनुमानमें भी प्राप्य विषयकी अपेक्षा स्वविषयोपदर्शनरूप प्रापकता और तन्मूलक प्रामाण्यका निश्चय हो जाता है। इसलिए अनुमान भी अविसंवादी होनेसे प्रमाण है। कहा भी है-"इन प्रत्यक्ष और अनुमानसे अर्थको जानकर प्रवृत्ति करनेवाले पुरुषकी अर्थक्रियामें कोई भी विसंवाद नहीं देखा जाता।"
६७, प्राप्त होनेवाली वस्तु नियत देश, काल तथा आकारमें ही प्राप्त होनी चाहिए। अर्थात् जिस देश में जिस समय तथा जिस आकारमें वस्तुका प्रतिभास हुआ हो वह जब उसी देश, उसी समय तथा उसी आकारमें उपलब्ध हो तभी सच्ची अर्थप्रापकता कही जा सकती है। इस तरह यथार्थवस्तुके प्रदर्शक प्रत्यक्ष और अनुमान ये दो ही ज्ञान प्रमाण हैं अन्य ज्ञान नहीं। शुक्ल शंखमें 'यह पीला शंख है' इस प्रकारका मिथ्याज्ञान प्रमाण नहीं है, क्योंकि यह जिस आकारमें वस्तुका प्रतिभास कराता है उस आकारमें वस्तुको प्राप्ति नहीं होती। पीत शंखको ग्रहण करनेवाले ज्ञानने जिस देश, काल तथा आकारमें वस्तुका उपदर्शन कराया उस देश, काल तथा पीतादि आकारमें तो शंख मिला नहीं और जो शुक्ल शंख मिला उसका उस रूपमें प्रतिभास नहीं हुआ था। इस तरह देशादिभेदसे वस्तुभेद होनेके कारण उक्त पीतशंखज्ञानमें विसंवादकता ही है प्रामाण्य नहीं। इसी तरह इन प्रत्यक्ष और अनुमान दो प्रमाणोंसे भिन्न शब्दजन्य आगमादिज्ञान भो प्रदर्शित अर्थके प्रापकत्वरूप प्रामाण्यके अधिकारी नहीं हैं, क्योंकि शब्द अनियत देश, काल तथा आकारवाली वस्तुका प्रतिपादन करता है, जबकि वस्तु किसी न किसी देश, काल या आकार ।
१. -दर्शने विक-प. १, २, म. १, २, क. । २. •मर्थे परि-म, २। ३. उद्धृतमिदम्-तस्वोप. पृ. २९ । सन्मति. टी. पृ. ४१८। न्यायवि. वि. प. पृ. ३५३, ५१३। सिद्धि वि. टो. पृ. २३। अनेकान्तमय. प्र. पृ. १३५। ४. नतु तथा म. २। ५. तैस्तथा भ. २। ६.-तत्वान्न तेषां भ. २।
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