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षड्दर्शनसमुच्चये
[ का० ८. ९६६
कत्वात् । तद्वदेव प्रवर्तकत्वमपि विषयोपदर्शकत्वेन व्यानशे । न हि ज्ञानं हस्ते गृहीत्वा पुरुषं प्रवर्तयति, स्वविषयं तूपदर्शयत्प्रवर्तकमुच्यते प्रापकं चेति । स्वविषयोपदर्शकत्वव्यतिरेकेण नान्यत्प्रापकत्वम् । तच्च शक्तिरूपम् । उक्तं च " प्रापणशक्तिः प्रामाण्यं तदेव च प्रापकत्वम्" [
]
इति । स्वविषयोपदर्शके च प्रत्यक्षानुमान एव, न ज्ञानान्तरम् । अतस्ते एव लक्षणा, तयोश्च द्वयोरप्यविसंवादकत्वमस्ति लक्षणम् । प्रत्यक्षेण ह्यर्थक्रियासाधकं वस्तु दृष्टतयावगतं सत्प्रदर्शितं भवति, अनुमानेन तु दृष्टलिङ्गाव्यभिचारितयाध्यवसितं सत्प्रदर्शितं भवतीत्यनयोः स्वविषयप्रेदर्शकत्वमेव प्रापकत्वम् । यद्यपि च प्रत्यक्षस्य क्षणो ग्राह्यः, स च निवृत्तत्वान्न प्राप्यते, तथापि तत्संतानोSध्यवसेयः प्रवृत्तौ प्राप्यत इति 'संतानविषयं प्रदशितार्थं प्रापकत्वमध्यक्षस्य प्रामाण्यम् । 'अनुज्ञ अपने विषयका यथार्थ उपदर्शन अर्थात् प्रतिभास या निश्चय कराता है वही प्रवृत्ति में प्रयोजक होकर प्रवर्तक होता है और वही प्रापक भी कहा जाता है। ज्ञान ज्ञाताका हाथ पकड़कर तो उसे पदार्थ तक नहीं ले जा सकता। हां, वह तो इतना ही कर सकता है कि - प्रमाताको पदार्थका यथार्थ उपदर्शन करा दे । ज्ञानमें इसी विषयोपदर्शन रूप ही प्रवर्तकता तथा प्रापकता है । स्वविषय के उपदर्शनको छोड़कर दूसरी कोई भी प्रवर्तकता या प्रापकता ज्ञानमें नहीं बन सकती । यह प्रापकता शक्तिरूप है। कहा भी है- " प्रापण शक्तिको ही प्रामाण्य कहते हैं, और ज्ञानमें इस शक्तिका होना ही प्रापकत्व है ।" प्रत्यक्ष और अनुमान ही अपने विषयके यथार्थ उपदर्शक होते हैं, अन्य ज्ञान नहीं । इसीलिए प्रत्यक्ष ओर अनुमानका ही लक्षण किया जाना चाहिए । इन दोनोंका सामान्य लक्षण अविसंवादकत्व है । प्रत्यक्ष तो अर्थक्रिया साधक स्वलक्षण रूप वस्तुको साक्षात् विषय करके उसका उपदर्शन कराता है । पर अनुमान लिंगदर्शनकी विषयभूत स्वलक्षण वस्तु के साथ अविनाभाव रखनेवाली साध्य वस्तुका अध्यवसाय कराकर प्रदर्शन कराता है, तब अविसंवादी होता है । इस तरह प्रत्यक्ष तथा अनुमान दोनोंमें स्वविषयोपदर्शनरूप प्रापकत्व है ।
[ प्रश्न -- जब पदार्थ प्रतिक्षण विनष्ट हो रहे हैं अतएव प्रत्यक्षका जो अर्थक्षण ग्राह्य-विषय था वह तो प्रवृत्तिकाल तक ठहरता ही नहीं है जिससे वह उसकी प्राप्ति कराके अविसंवादक बन सके । प्रत्यक्षमें प्रापकता और प्रापकतामूलक प्रमाणता कैसे सिद्ध हो सकती है ? ]
उत्तर - यद्यपि निर्विकल्पक प्रत्यक्षका साक्षात् ग्राह्य विषयभूत पदार्थ क्षणवर्ती स्वलक्षण ही है और वह द्वितीय क्षणमें नष्ट हो जाता है पर उस पदार्थका जो सन्तान है वह अध्यवसेय - निश्चय विषय बनता है अर्थात् प्रत्यक्षसे उत्पन्न होनेवाला विकल्प ज्ञान उस पदार्थके सन्तानका अध्यवसाय अर्थात् निश्चय कराता है और वही सन्तान प्रवृत्तिके बाद प्राप्त होता है । अतः सन्तान - के विषय में प्रदर्शित अर्थ की प्रापकतारूप प्रामाण्य प्रत्यक्षका है । अतः प्रत्यक्ष में तत्क्षणवर्ती स्वलक्षण पदार्थ की दृष्टिसे प्रापकता न भी बने पर सन्तानकी दृष्टिसे तो बन ही जाती है । क्योंकि ग्राह्य और अध्यवसेय का एकत्वाध्यवसाय है ।
१. " तथा च प्रत्यक्षं प्रतिभासमानं नियतमर्थं दर्शयति । अनुमानं च लिङ्गसम्बद्धं नियतमर्थं दर्शयति । भत एते नियतस्यार्थस्य प्रदर्शके । तेन ते प्रमाणे । नान्यद्विज्ञानम् ।" न्यायमि. टी. पृ. २१ । २. - षयदर्श - आ. । ३. " नोच्यते यस्मिन्नेव काले परिच्छिद्यते तस्मिन्नेव काले प्रापयितव्यमिति । अन्यो हि दर्शनकालः, अन्यश्च प्राप्तिकालः । किन्तु यत्कालं परिच्छिन्नं तदेव तेन प्रापणीयम् । अभेदाध्यवसायाच्च संतानगतमेकत्वं द्रष्टव्यमिति ।" न्यायबि. टी. पृ. २६ । ४. “ द्विविधो हि विषयः प्रमाणस्य — ग्राह्यश्च यदाकारमुत्पद्यते, प्रापणीयश्च यमध्यवसति । अन्यो हि ग्राह्योऽन्यश्चाध्यवसेयः । प्रत्यक्षस्य हि क्षण एको ग्राह्यः । अध्यवसेयस्तु प्रत्यक्षबलोत्पन्नेन निश्चयेन संतान एव । संतान एव च प्रत्यक्षस्य प्रापणीयः । क्षणस्य प्रापयितुमशक्यत्वात् ।" - न्यायबि. टी. पृ. ७१ । “ तथानुमानमपि स्वप्रतिभासेऽनर्थे ऽर्थाध्यवसायेन प्रवृत्तेरनर्थग्राहि ।" न्यायषि. टी. पृ. ७१
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