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________________ -का० ७.६६२] • बौद्धमतम् । णामानिरन्तरोदयाच्च पूर्वक्षणानामत्यन्तोन्छेवेऽपि स एवायमित्यध्यवसायः प्रसभं प्रादुर्भवति । दृश्यते च यथा लूनपुनरुत्पन्नेषु नखकेशकलापादिषु स एवायम्' इति प्रतीतिः तथेहापि कि न संभाव्यते सुजनेन । तस्मात्सिद्धमिदं यत्सत्तक्षणिकमिति । अत एव युक्तियुक्तमुक्तमेतत् 'क्षणिकाः सर्वसंस्काराः' इति। ६६२. अथ प्रस्तुतं प्रस्तूयते-'क्षणिकाः सर्वसंस्काराः' इत्यत्र इतिशब्दात्प्रकारार्थात् नास्त्यात्मा कश्चन, किंतु ज्ञानक्षणसंताना एव सन्तीत्यादिकमप्यत्र गृह्यते । ततोऽयमर्थ:-क्षणिकाः सर्वे पदार्थाः, नास्त्यात्मेत्याद्याकारा, एवमीदृशी यका 'स्वार्थे कप्रत्यये, या वासना पूर्वज्ञानजनिता तदुत्तरज्ञाने शक्तिः क्षणपरम्पराप्राप्ता मानसी प्रतीतिरित्यर्थः, स मार्गो नामार्यसत्यम्, इह बौद्धमते विज्ञेयोऽवगन्तव्यः । सर्वपदार्थक्षणिकत्वनैरात्म्याद्याकारश्चित्तविशेषो मार्ग इत्यर्थः। स च निरोधस्य कारणं द्रष्टव्यः। निरन्तर उत्पन्न होती है यह बात बारीकीसे देखनेपर सहज ही अनुभव में आ जाती है। पर साधारणतया लोग तो यही समझते हैं कि-'यह वही दीपक है।' ठीक इसी तरह पदार्थों का अत्यन्त विनाश होनेपर भी उनको जगह दूसरे नये सदृश पदार्थ निरन्तर उत्पन्न होनेके कारण तथा अनादि कालीन 'यह वही है। ऐसी अविद्या वासनाके कारण हमें सदृश क्षणोंमें भी 'यह वही है ऐसा एकत्व भान बलात् होता है। इसका कारण है हमारी स्थूल दृष्टि । हम समान आकारवाले पदार्थों में निरन्तर चिरकालीन परिचयके कारण तथा उनके प्रतिक्षण होनेवाले निरन्तर सदृश परिणमनसे भ्रममें पड़ जाते हैं और मान बैठते हैं कि 'यह वही पदार्थ है', जबकि वह पूर्वक्षणवर्ती पदार्थ समूल नष्ट हो चुका है और उसकी जगह ठीक वैसी ही शक्लवाला दूसरा नया ही प्रतिनिधि मौजूद है। दीपककी बात जाने दीजिए-बाल बनवाते समय हम बालोंको तथा नखोंको कटवाकर फेंक देते हैं, पर जब दूसरे वैसे ही बाल तथा नख उग आते हैं तब भी हमारी स्थूलबुद्धि 'ये वही बाल हैं, ये वही नख हैं। इस तरह पूर्व सदृश बालों और नखोंमें एकत्वका मिथ्या भान करने लगती है। इसलिए यह तो अनादिकालीन अविद्या तथा हमारी स्थूल दृष्टिका ही चमत्कार है जो हम सदृश पदार्थों में भी एकत्वका भान कर बैठते हैं। इसी तरह जगत्के सभी पदार्थ प्रतिक्षण नष्ट होकर अपने नये-नये सदृश रूपोंको धारण करते हैं परन्तु हम स्थूलबुद्धि अविद्या, वासना तथा पदार्थोकी सदृश निरन्तर उत्पत्तिसे ठगे जाते हैं और उन्हें 'ये वही हैं। इस तरह एक मान लेते हैं। इस विवेचनसे यह सिद्ध हो जाता है कि जो भी संसारमें सत् है वह क्षणिक है। अतः 'सभी संस्कार क्षणिक हैं' यह युक्तियुक्त हो कहा गया है। ६२. अब प्रस्तुत श्लोकका व्याख्यान करते हैं-'क्षणिकाः सर्वसंस्कारा इति' यहां इति शब्द प्रकारवाची है । अतः 'कोई आत्मा नामका स्वतन्त्र तत्त्व नहीं है किन्तु पूर्वापर ज्ञानप्रवाह रूप सन्ताने ही हैं इत्यादि प्रकारोंका संग्रह हो जाता है। इसलिए यह फलितार्थ हआ कि'सभी पदार्थ क्षणिक हैं', 'आत्मा नहीं है' इत्यादि प्रकारकी जो वासना है, उसे बौद्धमतके अनुसार मार्ग नामका आर्यसत्य कहते हैं। पूर्वज्ञानसे उत्पन्न होनेवाले उत्तरज्ञानमें पूर्वज्ञानसे क्षण परम्परासे जो शक्ति प्राप्त होती है उसे वासना या मानसी प्रतीति कहते हैं। तात्पर्य यह कि सभी पदार्थ क्षणिक हैं तथा 'आत्मा नहीं है' इत्यादि क्षणिक, नैरात्म्यादि आकारवाला चित्त विशेष ही मार्ग है। यह मार्ग आर्यसत्य निरोधका कारण होता है। २. नख केशकपालादि-म.२ ३.-द्या एवमाकारा एव यका म. २। १.च लून-भ. २। ४. विरोषस्य म.२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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