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षड्दशनसमुच्चये
[का०७.६६१एवं च मुद्गरादिघातशतपातेऽपि न विनाशो भवेत्, जातं कल्पान्तस्थायित्वं घटादेः, तथा च जेगद्वयवहारव्यवस्थाविलोपपातकपङ्किलता, इत्यभ्युपेयमनिच्छुनापि क्षणक्षयित्वं पदार्थानाम् । प्रयोगस्त्वेवम्--यद्विनश्वरस्वभावं तदुत्पत्तिसमयेऽपि तत्स्वरूपं यथा अन्त्यक्षणतिघटस्य स्वरूपम्, विनश्वरस्वभावं च रूपरसादिकमुदयत आरभ्येति स्वभावहेतुः। तदेवं विनाशहेतोरकिंचित्करत्वात् स्वहेतुत एव पदार्थानामनित्यानामेवोत्पत्तेः क्षणिकत्वमवस्थितमिति।
६१. ननु यदि क्षणक्षयिणो भावाः, कथं तहि स एवायम्' इति ज्ञानम् । उच्यते-निरन्तरसदृशापरापरक्षणनिरीक्षणचैतन्योदयादविद्यानुबन्धाच्च पूर्वक्षणप्रलयकाल एव दीपकलिकायां दीपकलिकान्तरमिव तत्सदृशमपरं क्षणान्तरमुदयते, तेन समानाकारज्ञानपरंपरापरिचयचिरतरपरिकल्पान्तकाल तक स्थिर हो जायेगा। इस प्रकार जब संसारका कोई भी पदार्थ नष्ट नहीं हो सकेगा तब संसारके समस्त हिंस्यहिंसक मृत्यु आदि व्यवहारोंकी व्यवस्थाका लोप हो जायेगा। और ऐसी कल्पना करनेवालेके माथेपर व्यवहारको व्यवस्थाके विलोपकी गहरी पाप कालिमा लगेगी। अतः जगत्के व्यवहारके अनुसार पदार्थों को क्षणिक मानना ही पड़ेगा, आपका चित्त अपने पूर्वग्रहके कारण भले ही उसे न मानना चाहता हो पर पदार्थकी व्यवस्था तो लोक प्रतीतिसे होती है कि की इच्छा या अनिच्छासे नहीं। अतः जो अन्तमें विनश्वर स्वभाववाले हैं वे उत्पत्तिके समय भी विनश्वर स्वभाववाले ही रहते हैं जैसे कि अन्तमें नष्ट होनेवाले घड़ेका विनश्वर स्वरूप यदि अन्तमें रहता है तो उसे उत्पत्तिकालमें भी रहना चाहिए अन्यथा अन्तमें भी वह स्वभाव कहाँसे आयेगा ?. उसी तरह चूंकि जगत्के समस्त रूप, रस आदि भी अन्तमें विनश्वर हैं और इसीलिए वे उत्पत्तिके समयसे ही विनश्वर स्वभाववाले हैं। यह क्षणिकत्वको सिद्ध करनेवाले स्वभाव हेतुका प्रयोग है। इस तरह जब विनाशक कारण विनाशके प्रति अकिंचित्कर अर्थात् निकम्मे साबित हो जाते हैं तो यह निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि पदार्थ अपने कारणोंसे विनाशस्वभाववाले ही उत्पन्न होते हैं। इस तरह पदार्थ जब अपने कारणोंसे ही विनश्वर स्वभावको लेकर उत्पन्न हुए हैं तब उन्हें कोन स्थिर रख सकता है, वे तो अपने उस स्वभावके कारण दूसरे ही क्षणमें नियमसे नष्ट हो ही जायेंगे। यही पदार्थों की क्षणिकताका स्वभावमूलक विवेचन है।
६१. शंका-यदि पदार्थ क्षणिक हैं अर्थात् प्रति समय नष्ट होकर नये-नये उत्पन्न होते हैं तो 'यह वही है' यह स्थिरतामूलक प्रत्यभिज्ञान कैसे होगा?
समाधान-'प्रत्यभिज्ञान होता है' यह तो ठीक है, पर जिस तरह सीपमें चांदीका ज्ञान मिथ्या है, उसी तरह 'यह वही है' यह प्रत्यभिज्ञान भी सदृश क्षणोंमें एकत्वका मिथ्या भान करनेके कारण सत्य नहीं है। असल बात तो यह है कि-पदार्थ प्रतिक्षणमें विनष्ट हो रहे हैं और उनकी जगह नये-नये सदृश पदार्थ तुरन्त ही उत्पन्न हो रहे हैं। देखो दीपककी लौ प्रतिक्षण नष्ट होती है और द्वितीय क्षणमें उसकी जगह उस पूर्व दीपकलिकाके सदृश ही नूतन दीपकलिका
१. जगद्व्यवस्थालोपपातक-म. २। २. -ति यदि म. २। ३. "सदृशापरोत्पत्तिविप्रलब्धो वा, सदृशे हि तदेवेदमिति बुद्धिर्यमजे । 'अत्रापि सदृशापरोत्पत्तिविप्रलब्धो लूनपुनर्जातकेशनखादिवत्..." -प्र. वार्तिकाल. १०९। “तस्मात् सदृशापरभावनिबन्धन एवायं के शकदलीस्तम्बादिष्विव आकारसाम्यतामात्रापहृदयानां भ्रान्त एव तत्त्वाध्यवसायो मन्तव्यः""" (पृ. ८६) सदृशापरभावग्रह कृतश्च अग्दिर्शनानामेकत्वविभ्रमो लनपनतिष्विव नख केशादिष्विति किन्नेष्यते (पृ. १२०)। सदृशापरभावनिबन्धनं चैकतया प्रत्यभिज्ञानं लूनपुनर्जातेष्विव केशनखादिषु इत्यत्र विरोधाभावादिति ।" (पृ. १३६ )-हेतुबि., टी.। "तुल्येत्यादिना भदन्तशुभगुप्तस्य परिहारमाशङ्कते-तुल्यापरक्षणोत्पादाद्यथा नित्यत्वविभ्रमः । अविच्छिन्नसजातीयग्रहे चेत्स्थूलविभ्रम:।" -तत्वसं.का. १९७२।
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