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-का०७.६६०]
'बोद्धमतम् । "जातिरेव हि भावानां विनाशे हेतुरिष्यते।
यो जातश्च न च ध्वस्तो नश्येत्पश्चात्स केन च ॥१॥" ६६०. नन्वनित्यत्वे सत्यपि यस्य घटादिकस्य यदेव मुद्गरादिसामग्रोसाकल्यं तदैव तद्विनश्वरमाकल्पते न पुनः प्रतिक्षणम् । ततो विनाशकारणापेक्षाणामनित्यानामपि पदार्थानां न क्षणिकत्वमिति; तवेतवनुपासितगुरोर्वचः; यतो मुद्गरादिसंनिधाने सति योऽस्य घटादिकस्यान्त्यावस्थायां विनाशस्वभावः, स स्वभावस्तस्यैवोत्पत्तिसमये विद्यते, न वा। विद्यते चेत् आपतितं तहि तदुत्पत्तिसमनन्तरमेव विनश्वरत्वम् । अथ न विद्यते स स्वभाव उत्पत्तिसमये; तहि कथं पश्चात्स भवेत् । अथेदश एव तस्य स्वभावो यदुत कियन्तमपि कालं स्थित्वा तेन विनष्टव्यमिति चेत् तहि मुद्गरादिसंनिधानेऽप्येष एव तस्य स्वभावः स्यात्, ततो भूयोऽपि तेन तावत्कालं स्थेयम्,
"पदार्थों के विनाशका कारण उनको जाति अर्थात् उत्पत्ति या स्वभाव ही है । अर्थात् पदार्थ स्वभावसे ऐसे ही उत्पन्न होते हैं जिन्हें दूसरे क्षणमें नष्ट हो हो जाना चाहिए। जो पदार्थ उत्पन्न होकर भी अनन्तर ही नष्ट नहीं हुआ उसे पोछे कौन नष्ट कर सकेगा? अर्थात् वह नित्य हो जायेगा, उसका कभी भी नाश नहीं हो सकेगा।"
६०. शंका-पदार्थ अनित्य हैं यह तो समझमें आ जाता है, किन्तु घट आदि पदार्थों के नाशक हेतु मुद्गर आदि जब मिल जायें तभी उनका विनाश होता है, उन्हें प्रतिक्षण विनाशी मानना किसी भी तरह उचित नहीं मालूम होता। इसलिए विनाशक सामग्रीके मिलनेपर ही विनाशवाले अनित्य पदार्थोंकी तब तक तो स्थिति माननी ही चाहिए जब तक कि उनके विनाशक कारण नहीं जुट जाते । अतः पदार्थ कालान्तरस्थायी-अनित्य-अर्थात् कुछ काल तक ठहरकर नष्ट होनेवाले हैं, न कि प्रतिक्षण विनाशी।
समाधान-यह शंका तो उस व्यक्तिकी मालूम होती है जिसने गुरुके पाससे ज्ञान प्राप्त नहीं किया। आप यह बताइए कि मगर आदि विनाशक कारणोंके मिलनेपर घट आदिको अन्तिम अवस्थामें जो विनश्वर स्वभाव प्रकट होता है वह स्वभाव उन घटादिकी उत्पत्तिके समय भी विद्यमान था या नहीं? यदि था, तो उन घटादि पदार्थोंको अपने उस विनश्वर स्वभावके कारणउत्पत्तिके बाद ही नष्ट हो जाना चाहिए। ऐसी अवस्थामें वे पदार्थ कालान्तरस्थायी न होकर क्षणिक ही सिद्ध होते हैं । यदि वह स्वभाव उत्पत्तिके समय नहीं था; तो पीछे वह कहांसे आयेगा? क्योंकि स्वभाव तो वस्तुकी उत्पत्तिके समयसे ही होता है। यदि आप कहें कि 'उसका ऐसा ही एक विचित्र स्वभाव है जो उसे कुछ काल तक ठहर कर ही नष्ट होना चाहिए, उत्पत्तिके अनन्तर क्षणमें ही नहीं' सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि यदि उसका कुछ काल तक ठहरकर नष्ट होनेका स्वभाव है और स्वभावका सदा बने रहनेका नियम है तो मुद्गर आदि विनाशक कारणोंके मिलनेपर भी उसका वह 'कुछ काल तक ठहरकर नष्ट होनेका स्वभाव' घटादिको और भी कुछ काल तक ठहरा देगा, तुरन्त नष्ट नहीं होने देगा। इस तरह जब भी मुद्गर आदि विनाशक कारण मिलेंगे तभी वह कुछ काल तक ठहर कर नष्ट होनेका स्वभाव बीचमें आकर पदार्थको और कुछ काल तक ठहरा देगा और इस तरह विनाशक हेतुओंका प्रहार बराबर निष्फल होता जायेगा। तब आप घड़ेपर एक बार तो क्या सौ बार भी मुद्गरसे प्रहार किये जाइए पर घड़ा हर बार अपने कुछ काल तक ठहरकर नष्ट होनेवाले स्वभावसे अपनी आत्मरक्षा करता जायेगा और इस तरह घड़ा ... १. वा क., वः-प. १, २, म. १, २ । उद्धृतोऽयम्-सिद्धिवि, टी.. पृ. २९। २. तदैव विन-म.
२। ३. विनाशकारणेऽपेक्षा-म, २ । ४. चेतहि तदुत्पत्तिसमयानन्तरमेव दिन-भ. २ ।
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