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-का०७६ ५८]
बौद्धमतम् । यदि क्रियते; तदा कि पूर्वस्वभावपरित्यागेन क्रियते, अपरित्यागेन वा। यदि परित्यागेन; ततोऽतादवस्थ्यापत्तेरनित्यत्वम् । अथ पूर्वस्वभावापरित्यागेन; ततस्तस्य नित्यस्य तत्कृतोपकाराभावात्कि सहकार्यपेक्षया कर्तव्यम् । अथाकिंचित्करोऽपि सहकारी तेन विशिष्टकार्यार्थमपेक्ष्यते; तदयुक्तम्; यतः
"अपेक्ष्येत परः कश्चिद्यदि कुर्वीत किंचन।
यदकिंचित्करं वस्त कि केनचिदपेक्ष्यते ॥१॥" [प्र.वा, ३१२७९] अथ तस्य प्रथमार्थक्रियाकरणकालेऽपरार्थक्रियाकरणस्वभावो न विद्यते; तथा च सति स्पष्टैव नित्यताहानिः। अथासौ नित्योऽर्थो योगपद्येनार्थक्रियां कुर्यात् तथा सति प्रथमक्षण एवाशेषार्थ
क्षणिकवादी-अच्छा, यह बताओ कि-जब सहकारिकारण नित्यकी सहायता करते हैं, तब वे नित्यपदार्थ में कुछ सामर्थ्य या अतिशय भी उत्पन्न करते हैं या नहीं ? यदि वे नित्यमें कोई नया अतिशय उत्पन्न करते हैं; तब उस समय नित्यके सदा-स्थायी पूर्वस्वभावमें कुछ परिवर्तन भी होता है कि नहीं? तात्पर्य यह कि जिस समय सहकारिकारण किसी नये अतिशय या सामर्थ्यको लेकर नित्यके सामने उपस्थित होते हैं उस समय नित्य पदार्थ उस सामर्थ्यको ग्रहण करते समय
जो कि उनमें पहले नहीं थी, अपने पूर्व-स्वभाव अर्थात् असमर्थ स्वभावको छोड़ते हैं या नहीं। .यदि नित्यने सहकारियों-द्वारा लाये गये नये अतिशयको ग्रहण करते समय अपना पूर्व असमर्थ स्वभाव छोड़ दिया, जिसे छोड़े बिना नये स्वभावका ग्रहण करना सम्भव ही नहीं है; तब पूर्व स्वभावका परित्याग तथा नूतन स्वभावको ग्रहण करनेके कारण नित्य में काफी परिवर्तन हो जायेगा और यह परिवर्तन नित्यको सदा स्थायी नित्यरूपमें नहीं रहने देगा, अर्थात् उसे अनित्य बना देग। यदि नित्य अपने पूर्वकालीन असमर्थ स्वभावको नहीं छोड़ता है, तो इसका स्पष्ट अर्थ यह हुआ कि सहकारिकारणोंने नित्यका कुछ भी उपकार नहीं किया अर्थात् उसमें किसी भी नवीन अतिशयकी सृष्टि नहीं की। तब नित्यको ऐसे अकिंचित्कर अर्थात् कुछ भी उपकार नहीं करनेवाले-सहकारियोंकी अपेक्षा ही क्यों होगी? जो थोडा-बहत उपकार करता है. या किसी प्रयोजनको सिद्धि होती है संसार उसीकी अपेक्षा करता है।
नित्यवादी-यद्यपि सहकारी कारण नित्य पदार्थमें कोई नवीन अतिशय उत्पन्न नहीं करते और न उसके किसी पूर्व स्वभावका विनाश ही करते हैं फिर भी नित्य पदार्थ विशिष्ट कार्यकी उत्पत्तिके निमित्त उन अकिचित्कर सहकारियोंकी भी अपेक्षा करता है। उन सहकारियोंके साथ मिलकर नित्य विशिष्ट कार्यको उत्पन्न करता है।
क्षणिकवादी-आपका तर्क असंगत है, क्योंकि "पर पदार्थ यदि कुछ कार्य करे या किसी प्रयोजनको साधे तभी उसकी अपेक्षा की जा सकती है। जो अकिंचित्कर है, किसी भी मतलबका नहीं है उस भारभूत पदार्थकी, भला कोई क्यों अपेक्षा करेगा? उलटे ऐसे निकम्मे पदार्थसे तो लोग बचना ही चाहेंगे।"
यदि नित्यपदार्थमें प्रथम अर्थक्रिया करते समय द्वितीयादि समयोंमें होनेवाले कार्योके उत्पादनकी सामर्थ्य नहीं है, और द्वितीयादि समयोंमें जब उन कार्योंको उत्पन्न होना है तब वह सामर्थ्य आ जाती है, तो बताइए उसमें नित्यता कहां रही? क्योंकि नित्यमें जो सामर्थ्य प्रथम
१. भावस्य परि-आ.। २. ततोऽन्यदवस्थापत्ते-म.२। ३. "अपेक्षेत परः कार्य यदि विद्येत किंचन । प्र, वा. १२७९ । ४. कश्चित्कुर्वीत यदि कि-भ.२। ५. “योगपद्यं च नैवेष्टं तत्कार्याणां क्षयेक्षणात् । निःशेषाणि च कार्याणि सकृत्कृत्वा निवर्त्तते । सामर्थ्यात्मा स दार्थः सिद्धाऽस्य क्षणभनिता ॥"-तत्वसं. ११३।४।
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