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षड्दर्शनसमुच्चये
[ का०७६५८स्याभावः प्रसजति । तथाहि-"यदेवार्थक्रियाकारि तदेव परमार्थसत्" इति। स च नित्योऽर्थोऽर्थक्रियायां प्रवर्तमानः क्रमेण वा प्रवर्तेत, यौगपद्येन वा । न तावत्क्रमेणा; यतो ोकस्या अर्थक्रियायाः करणकाले तस्यापरार्थक्रियायाः करणस्वभावो विद्यते न वा। यदि विद्यते; कुतः क्रमेण करोति । अथ सहकार्यपेक्षया इति चेत् तेन सहकारिणा तस्य नित्यस्य कश्चिदतिशयः क्रियते न वा। www अविनश्वर स्वभाव लेकर ? यदि पदार्थ अविनश्वर अर्थात् सदास्थायी नित्य स्वभाववाले हैं, तो नित्यपदार्थ क्रम तथा युगपत् दोनों ही प्रकारसे अर्थक्रिया करने में असमर्थ होनेके कारण असत् ही सिद्ध होता है। क्योंकि जो अर्थक्रिया करता है वही परमार्थ रूपसे सत् है। अर्थक्रिया और पदार्थकी सत्तामें व्याप्यव्यापकभाव है। अर्थक्रिया व्यापक है और पदार्थकी सत्ता व्याप्य है। अर्थक्रिया क्रमसे होती है या युगपत् । जब नित्यपदार्थ में क्रम और युगपत् दोनों ही प्रकारसे अर्थक्रिया नहीं बनती अर्थात् सत्त्वकी व्यापक अर्थक्रियाका अभाव है तो व्याप्यभूत सत्ताका अभाव होनेसे अविनश्वर स्वभाववाली वस्तुका भी अभाव हो जाता है।
वह इस प्रकार-जब नित्य पदार्थ कोई अर्थक्रिया करनेकी तैयारी करता है तब वह उन अर्थक्रियाओंको क्रमसे करता है या सभीको एक साथ ही कर देता है ? नित्य पदार्थ समर्थ-स्वभाववाला तथा अपरिवर्तनशील होता है। उसमें न तो कोई नूतन अतिशय या स्वभाव उत्पन्न हो सकता है और न उसके किसी विद्यमान स्वभावका विनाश ही हो सकता है। ऐसी स्थितिमें यदि नित्य पदार्थ अपने द्वारा होनेवाले कार्योंको क्रमसे करता है तब, जिस समय वह एक कार्यको करता है उस समय उसमें दूसरे तीसरे आदि समयोंमें होनेवाली अर्थकियाओंके करनेका स्वभाव है या नहीं ? यदि एक अर्थक्रियाके काल में अन्य अर्थक्रियाओंके करनेका स्वभाव भी उसमें है; तब विवक्षित अर्थक्रियाकी तरह अन्य अर्थक्रियाएँ भी उसी समय उत्पन्न हो जानी चाहिए। इस तरह सभी अर्थक्रियाओंकी युगपद् उत्पत्ति होनेपर नित्यमें 'क्रमसे' कार्य करना कहां सिद्ध हुआ?
नित्यवादी-नित्यमें यद्यपि सभी अर्थक्रियाओंके करनेके स्वभाव सदा विद्यमान रहते हैं; पर जिन-जिन कार्यों के उत्पादक अन्य सहकारि कारण जब-जब मिल जाते हैं नित्य उन्हें तब-तब उत्पन्न कर देता है। इस तरह सहकारिकारणोंके क्रमसे, नित्य पदार्थ भी क्रमसे अर्थक्रिया करता है। सहकारी कारण तो अनित्य हैं । अतः उनका सन्निधान क्रमसे ही हुआ करता है। -
१. “यथा यत् सत् तत् क्षणिकमेव, अक्षणिकत्वेऽर्थक्रियाविरोधात् तल्लक्षणवस्तुत्वं हीयते ।" हेतुषि, पृ. ५४ । “यदि न सर्व सत् कृतकं वा प्रतिक्षणविनाशि-स्यादक्षणिकस्य क्रमयोगपद्याभ्यामक्रियाऽयोगादर्थक्रियासामर्थ्यलक्षणमतो निवृत्तमित्यसदेव स्यात् । सर्वसामोपाख्यं विरहलक्षणं हि निरुपाख्यमिति ॥"यत्र क्रमयोगपद्यायोगो न तस्य क्वचितसामध्यम, अस्ति चाक्षणिके स इति प्रवर्त्तमानमसामyमसल्लक्षणमाकर्षति । तेन यत्सित्कृतकं वा तदनित्यमेवेति सिध्यति । तावता साधनधर्ममात्रान्वयः साध्यधर्मस्य स्वभावहेतुलक्षणं सिद्धं भवति । -वादन्यायः पृ. ६-९। "क्रमेण युगपच्चापि यस्मादर्थक्रिया कृता । न भवन्ति स्थिरा भावा निःसत्त्वास्ते ततो मताः ॥ कार्याणि हि विलम्बन्ते कारणासन्निधानतः । समर्थहेतुसद्भावे क्षेपस्तेषां हि किंकृतः॥ अथापि सन्ति नित्यस्य क्रमिणः सहकारिणः। यानपेक्ष्य करोत्येव कार्यग्रामं क्रमाश्रयम् ॥ साध्वेतत्कितु ते तस्य भवन्ति सहकारिणः। कि योग्यरूपहेतुत्वादेकार्थकरणेन वा ॥ योग्यरूपस्य हेतुत्वे स भावस्तैः कृतो भवेत् । स चाशक्यक्रियो यस्मात्तत्स्वरूपं तदा स्थितम् ॥ कृती वा तत्स्वरूपस्य नित्यतास्यावहीयते । विभिन्नोऽतिशयस्तस्माद्यद्यसौ कारकः कथम् ॥"-तस्वसं, इलो ३९४-९९। २. "अर्थक्रियासमर्थ यत् तदत्र परमार्थसत् । अन्यत् संवृतिसत प्रोक्तं; ते स्वसामान्यलक्षणे ॥" -प्र. वा. २३ । “अर्थक्रियासामर्थ्यलक्षणत्वाद्वस्तुनः।" -न्यायबि. सू. ११५। ३. क्रमेण प्रव-आ.। ४.-कस्य अर्थ-क.। ५.-याः काले प.१,२, म. १,२। ६. अस्या -म.।
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