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________________ षड्दर्शनसमुच्चय [का०५.६५४ ६५४. न चैतेभ्यो विज्ञानादिभ्यो व्यतिरिक्तः कश्चनात्माख्यः पदार्थः सुखदुःखेच्छाद्वेषज्ञानाधारभूतोऽध्यक्षेणावसीयते। नाप्यनुमानेन; तदव्यभिचारिलिङ्गग्रहणाभावात् । न च प्रत्यक्षानुमानव्यतिरिक्तमर्थाविसंवादि प्रमाणान्तरमस्तीति । ते च पञ्च स्कन्धाः क्षणमात्रावस्थायिन एवं वेदितव्याः, न पुननित्याः, कियत्कालावस्थायिनो वा । एतच्च "क्षणिकाः सर्वसंस्काराः" [का०७] इत्यत्र दर्शयिष्यते ॥५॥ $ ५५. दुःखतत्त्वं पञ्चभेदतयाभिषायाथ दुःखतत्त्वस्य कारणभूतं समुदयतत्त्वं व्याख्याति समुदेति यतो लोके रागादीनां गणोऽखिला आत्मात्मीयभावाख्यः समुदयः स उदाहृतः ॥५॥ ६५६. यतो यस्मात्समुदयाल्लोके लोकमध्ये रागादीनां रागद्वेषाविदोषाणां गणः समवायः अखिलः समस्तः समुदेति समुद्भवति । कीदृशो गण इत्याह-आत्मात्मीयभावाख्यः । आत्मा स्वम् आत्मीयः स्वकीयः तयोर्भावस्तत्त्वम् । आत्मात्मीयभावः 'अयमात्मा अयं चात्मीयः' इत्येवं संबन्धं marwana ६५४. इन विज्ञान आदि स्कन्धोंसे भिन्न, सुख दुःख इच्छा द्वेष ज्ञानादिका आधारभूत आत्मा नामका कोई स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है । और न स्कन्धोंसे भिन्न आत्माका प्रत्यक्षसे ही अनुभव होता है। ऐसे आत्माके साथ अविनाभाव रखनेवाला कोई निर्दोष लिंग भी नहीं है जिससे अनुमानके द्वारा आत्माकी सिद्धि की जाये। प्रत्यक्ष और अनुमान ये दो ही अविसंवादी प्रमाण हैं। इनसे भिन्न कोई तीसरा प्रमाण नहीं है। ये पांचों स्कन्ध क्षणिक हैं, एक क्षण तक ही ठहरते हैं और दूसरे क्षणमें विनष्ट हो जाते हैं। ये स्कन्ध न तो कूटस्थनित्य-सदा-एकरूपसे रहनेवाले ही हैं और न कालान्तर-स्थायो-दो चार क्षण तक ठहरनेवाले-ही हैं। ये तो एक ही क्षण तक ठहरते हैं और दूसरे क्षणमें समूल नष्ट हो जाते हैं। स्कन्धोंको क्षणिकताका समर्थन 'क्षणिकाः सर्वे संस्काराः" [ का०७] इसमें किया जायेगा ॥५॥ ६५५. इस प्रकार पंचस्कन्धरूप दुःखतत्त्वका वर्णन करके अब दुःखतत्वके कारणभूत समुदयतत्त्वका व्याख्यान जिससे लोकमें 'मैं हूँ, यह मेरा है' इत्यादि अहंकार ममकाररूप समस्त रागादिभावोंका .समूह उत्पन्न होता है उसे समुदय कहते हैं ॥६॥ ५६. जिससे लोकमें 'मैं हूँ, यह मेरा है, यह पर है, यह पराया है' इत्यादि रूपसे अपना जाल फैलानेवाले राग-द्वेषादि दोषसमूह उत्पन्न होते हैं वह समुदय है। अहंकार और ममकाररूपसे होनेवाला आत्मभाव और आत्मीयभाव ही समुदय तत्त्व है । एक जगह अहंकार और १. “यथा हि अंगसंभारा होति सद्दो रथो इति । एवं खंधेसु सत्तेसु होति सत्तोति सम्मुति ॥" मिलिन्द.। "नन्वनित्येष भावेष कल्पना नाम जायते-यथोपवणितेन न्यायेन स्वरूपसिद्धस्य स्कन्धव्यतिरिक्तस्यात्मनः सर्वथाऽभावात् । नन्वनित्येषु रूपवेदनासंज्ञासंस्कारविज्ञानाख्येषु भावेषु आत्मेति कल्पना अभूतार्थारोपणं क्रियते आत्मा सत्त्वो जीवों जन्तुरिति । यथाहि इन्धनमुपादायाग्निः एवं स्कन्धानुपादाय आत्मा प्रज्ञप्यते ।"-चतुःश. वृ.१०॥३"नात्मास्ति.स्कन्धमा तु क्लेशकर्माभिसंस्कृतम् । अन्तराभवसंतत्या कुक्षिमेति प्रदीपवत् ॥" --अमिध. ।बोधि. यं. पू. ४७४ । "स एवं स्कन्धसमुदायलक्षणः प्रज्ञप्तिसन्.." -तरवसं. पं. . ३ । २. एवावेदित भ.२। एवावेत प.१.२.भ.५। ३. "कतमं च भिक्खये दुक्खसमृदयं अरियाचं? यायंतण्हा पोनोभविका नन्दिरागसहगता तत्र तत्रामिनन्दिनी सेयथीदं कामतहार्भवतण्हा विभवतण्डा"--म.नि. सहाहस्थि । विसुद्धि. १६६१ । ४. उद्भवति प.१,२, भ. १२।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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