________________
x
-का०५६५३]
बौद्धमतम् । ६५०. सुखा दुःखा अदुःखसुखा चेति वेदना वेवनास्कन्धः। वेदना हि पूर्वकृतकर्मविपाकतो जायते । तथा च सुगतः कदाचिद्भिक्षामटाटयमानः कण्टकेन चरणे विद्धःप्राह
"इत एकनवते कल्पे शक्त्या में पुरुषो हतः।
तत्कर्मणो विपाकेन पादे विद्धोऽस्मि भिक्षवः ।।" इति ।। ६५१. संज्ञानिमित्तोदग्रहणात्मकः प्रत्ययः संज्ञास्कन्धः। तत्र 'संज्ञा गौरि'त्यादिका गोत्वादिकं च तत्प्रवृत्तिनिमित्तम्, तयोरुग्रहणा योजना, तदात्मकः प्रत्ययो नामजात्यादियोजनात्मकं सवि. कल्पकं ज्ञानं संज्ञास्कन्ध इत्यर्थः।
F५२. पुण्यापुण्यादिधर्मसमुदायः संस्कारस्कन्धः, यस्य संस्कारस्य प्रबोधात्पूर्वानुभूते विषये स्मरणादि समुत्पद्यते।
६५३. पृथिवीधात्वादयो रूपादयश्च रूपस्कन्धः ।
५०. सुखरूप, दुःखरूप और असुखदुःखरूप-जिसे न सुखरूप ही कह सकते हैं और न दुःखरूप ही-वेदना-अनुभवको वेदनास्कन्ध कहते हैं। पूर्वकृत कर्मके परिपाकसे कर्मके फलकी सुखादिरूपसे वेदना होती है। एक बार जब स्वयं सुगत भिक्षाके लिए जा रहे थे तब उनके पैरमें एक कांटा गड़ गया। उस समय उन्होंने कहा था कि
"हे भिक्षुओ, आजसे एकानबेवें कल्पमें मैंने शक्ति-छुरीसे एक पुरुषका वध किया था। उसी कर्मके विपाकसे आज मेरे पैर में कांटा लगा है।" इति।
५१. जिन प्रत्ययोंमें शब्दोंके प्रवृत्तिनिमित्तोंकी उद्ग्रहणा अर्थात् योजना हो जाती है उन सविकल्पक प्रत्ययोंको संज्ञास्कन्ध कहते हैं। गौ, अश्व इत्यादि संज्ञाएँ हैं। ये संज्ञाएं वस्तुके सामान्यधर्मको निमित्त बनाकर व्यवहारमें आती हैं, जैसे गो संज्ञा गोत्वरूपसामान्यधर्म जहां-जहाँ होगा वहां-वहां प्रवृत्त होंगी। इसीलिए गोत्व आदि सामान्य गो आदि संज्ञाओंके प्रवृत्तिनिमित्त कहे जाते हैं। गो आदि संज्ञाओंका अपने प्रवत्तिनिमित्तोंके साथ उदग्रहणा-योजना करनेवाला सविकल्पक प्रत्यय संज्ञास्कन्ध है। अर्थात् नाम जाति आदिकी योजना करके 'यह गो है, यह अश्व है' इत्यादि व्यवहारका प्रयोजक सविकल्पकज्ञान संज्ञास्कन्ध कहलाता है।
५२. पुण्य पाप आदि धर्मोके समुदायको संस्कारस्कन्ध कहते हैं। इसी संस्कारके प्रबोधसे पहले जाने गये पदार्थका स्मरण, प्रत्यभिज्ञान आदि होते हैं।
६५३. पृथिवी आदि धातुएँ तथा रूपादि विषय रूपस्कन्ध कहलाते हैं। १. वेति प.१,२, भ.२। २. "वेदनाऽनुभवः" -अभिध. १४। "यं किंचि वेदयितलक्खणं सव्वं तं एकतो कत्वा वेदनाक्खंघो वेदितम्वो ति ।"-विसुद्धि. १४।१२५ । ३. "संज्ञा निमित्तोद्ग्रहणात्मिका। निमित्तं नीलपीतदीर्घहस्वपुरुषस्त्रीशत्रुमित्रशाताशातस्वभावाः, तेषाम् उद्ग्रहणं मनसि धारणमेव स्वरूपं संज्ञास्कन्धस्य। -अभिध. टी. १।१४। “यं किंचि संजाननलक्खणं सव्वं तं एकतो कत्वा सज्ञाक्खंघो वेदितव्यो ति। एत्थापि संजाननलक्खणं नाम सजाव। यथाह-"संजानाति संजानातीति खो आवसो तस्मा' सा ति वच्चती" ति [म.१२९३]-विद्धि. १४४१२९ । ४. तत्प्रतिपत्तिनि-क., आ., प. १, २, भ. १। ५. -कल्पज्ञानं प. १, २, भ. १, २। ६. "चतुर्योऽन्ये संस्काराः संस्कारस्कन्धः" -अभिध.१५। विसुद्धि. १४३१। ७. "रूपं पञ्चेन्द्रियाण्याः पञ्चाविज्ञप्तिरेव च ।" अमिघ. ११९। “तत्थ यं किंचि सीतादीहि रुप्पनलक्खणं धम्मजातं सव्वं तं एकतो कत्वा रूपक्खंधो ति वेदितव्वं । तदेतं हप्पनलक्खणेन एकविघं पि भूतोपादायभेदतो दुविधं । तत्थ भूतरूपं चतुग्विधं-पथवीधातु आपोधातु तेजोषातु वायोषातू ति । उपादायरूपं चतुवीसविधं-" विसुद्धि. १४।१४-३६ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org