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________________ षड्दर्शनसमुच्चये [ का०४. $ ४३वेवितं भवति । 'नित्यद्रव्यवृत्तयोऽन्त्या विशेषा एव वैशेषिक, विनयादिभ्य इति स्वार्थ इकण् । तद्वैशेषिक विदन्त्यधीयते वा, "तद्वेत्त्यधीते" [ हैम. ६२] इत्यणि वैशेषिकास्तेषामिदं वैशेषिकम् । जैमिनिराद्यः पुरुषविशेषस्तस्येदं मतं जैमिनीयं मीमांसकापरनामकम् । तथाशब्दश्चकारश्चात्र समुच्चयार्थों । एवमन्यत्राप्यवसेयम् । अमूनि षडपि दर्शनानां नामानि । अहो इति शिष्यामन्त्रणे । आमन्त्रणं च शिष्याणां चित्तव्यासङ्गत्याजनेन शास्त्रश्रवणायाभिमुखीकरणार्थमत्रोपन्यस्तम् ॥३॥ ६४३. अथ यथोद्देशस्तथा निर्देश इति न्यायादादौ बौद्धमतमाचष्टे तत्र बौद्धमते तावद्देवता सुगतः किल । चतुर्णामार्यसत्यानां दुःखादीनां प्ररूपकः ॥४॥ ६४४. तत्रशब्दो निर्धारणार्थः, तावच्छब्दोऽवधारणे। तेषु दर्शनेष्वपराणि दर्शनानि तावत्तिष्ठन्तु, बौद्धमतमेव प्रथमं निर्धार्योच्यत इत्यर्थः । अत्र चादौ बौद्धदर्शनोपलक्षणार्थ मुग्धशिष्यानुदर्शन था और वह था जैनदर्शन। इनमें परस्पर कुछ भी मतभेद नहीं था। विशेष नित्यद्रव्यमें रहते हैं, तथा अन्त्य हैं। अन्त्य-जगत्के विनाश तथा प्रारम्भकालमें रहनेवाले परमाणु, मुक्त आत्मा तथा मुक्त आत्माओंके पण्ड मन 'अन्त्य' कहे जाते हैं। इनमें रहनेके कारण विशेषोंको अन्त्य कहते हैं । विशेषको ही (विनयादिभ्यः स्वार्थमें इकण् प्रत्यय करनेपर) वैशेषिक कहते हैं । इस वैशेषिक अर्थात् विशेष पदार्थको जो जाने अथवा अध्ययन करें (तद्वेत्त्यधीते : इस सूत्रसे अण् प्रत्यय करनेपर) उन्हें वैशेषिक कहते हैं। वैशेषिकोंके दर्शनको वैशेषिक कहते हैं। जैमिनि नामके आद्य आचार्य हुए हैं, उनके मतको जैमिनीय मत कहते हैं। इसे मीमांसक भी कहते हैं। श्लोकमें 'तथा' शब्द और 'च' शब्द समच्चयार्थक हैं। 'अहो' शब्दका प्रयोग शिष्यके आमन्त्रणके लिए किया गया है। शिष्योंके चित्तको दूसरे विषयोंसे हटाकर शास्त्र सुननेकी ओर उपयुक्त करनेको आमन्त्रण किया गया है ॥३॥ ६४३. 'जिस क्रमसे नाम निर्देश किया गया हो उसी क्रमसे उनका लक्षण और विवेचन करना चाहिए' इस नियमके अनुसार आदिमें निर्दिष्ट बौद्धमतका वर्णन करते हैं बौद्धमतमें दुःख, समुदय, निरोध और मार्ग इन चार आर्यसत्योंके उपदेश देनेवाले सुगतदेवता हैं ॥४॥ ६४४. श्लोकमें निर्धारण अर्थमें 'तत्र' शब्दका और अवधारण अर्थमें 'तावत्' शब्दका प्रयोग किया है। अतः छहों दर्शनोंमें-से अन्य दर्शनोंकी विवक्षा नहीं करके केवल बोद्धदर्शन ही १. "नित्यद्रव्यवृत्तयोऽत्र विशेषाः ते प्रयोजनमस्य वैशेषिकं शास्त्रं तद् वेत्ति अधोते वा वैशेषिकः ।" -अमिधान. १५५ । "द्वित्वे च पाकजोत्पत्ती विभागे च विभागजे । यस्य न स्खलिता बुद्धिस्तं वै वैशेषिकं विदुः ॥"-सर्वद. मौ. पृ. २२० । २. "....यदिदं चतुन्नं अरियसच्चानं आचिक्खना देसना पञपना पट्रपना विवरणा विभजना उत्तानिकम्मं । कतमेसं चतुन्नं? दुक्खस्स अरियसच्चस्स, दुक्खसमुदयस्स अरियसच्चस्स, दुक्खनिरोधस्स अरियसच्चस्स, दुक्खनिरोधगामिनिया पटिपदाय अरियसच्चस्स ।"-मझिम. सच्चविमंग.। संयु. ४२५-२६ । विनय. महाबगा। विसुद्धि. १११३ । "चत्वार्यसत्यानि । तद्यथा-दुःखं समुदयो निरोधो मार्गश्चेति ।"-धर्मसं. पू. ५। "सत्यान्युक्तानि चत्वारि दुःखं समुदयस्तथा। निरोधो मार्ग एतेषां यथाभिसमयं क्रमः ॥"-अमिध, ६२ । “बाधात्मकं दुःखमिदं प्रसक्तं दुःखस्य हेतुः प्रभवात्मकोऽयम् । दुःखक्षयो निःसरणात्मकोऽयं त्राणात्मकोऽयं प्रशमाय मार्गः ॥ इत्यार्यसत्यानि..."-सौन्दर. १४। प्रमाणवा. ११४८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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