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षड्दर्शनसमुच्चये
[ का० २. ९३९
$ ३९. तवेवमनेकानि दर्शनानि लोकेऽभिधीयन्ते । तानि च सर्वाणि देवतातस्वप्रमाणादिभेदेनात्राल्पीयसा प्रस्तुत ग्रन्थेनाभिधातुमशक्यानि तत्कथमत्राचार्येण 'सर्वदर्शनवाच्योऽर्थो निगद्यते' इत्येवं गदितुमशक्योऽय वक्तुं प्रत्यज्ञायि । गगनाङ्गुलप्रमितिरिव पारावारोभयतटसिकताकणगणनमिवात्यन्तं दुःशक्योंऽयमर्थः प्रारब्ध इति चेत्; सत्यमेतत्; यद्यवान्तरतद्भेदापेक्षया वक्तुमेषोऽर्थः प्रक्रान्तः स्यात् । यावता तु मूलभेदापेक्षयैव यानि सर्वाणि दर्शनानि तेषामेव वाच्योऽत्र वक्तव्यतया प्रतिज्ञातोऽस्ति नोत्तरभेदापेक्षया, ततो न कश्चन दोषः । सर्वशब्दं च व्याचक्षाणैरस्माभिः पुराप्यमर्थो दर्शित एव परं विस्मरणशीलेन भवता विस्मारित इति ॥ १ ॥ एनमेवार्थं ग्रन्थकारोऽपि साक्षादाहदर्शनानि षडेवात्र मूलभेदव्यपेक्षया ।
देवतात व मेदेन ज्ञातव्यानि मनीषिभिः ॥ २ ॥
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४०. अत्र प्रस्तुतेऽस्मिन्प्रन्थे दर्शनानि षडेव, मूलभेदव्यपेक्षया मूलभेदापेक्षया मनीषिभि मेधाविभिर्ज्ञातव्यानि न पुनरवान्तरतदभेदापेक्षयाधिकानि परमार्थतस्तेषामेष्वेवान्तर्भावात् । षडेवेति सावधारणं पदम् । केन हेतुना मूलभेदानां षोढात्वमित्याशङ्क्याह-देवतातत्त्वभेदेन इति । देवा एव देवताः, स्वार्थेऽत्र तल्प्रत्ययः, तत्त्वानि प्रमाणैरुपपन्नाः परमार्थसन्तोऽर्थाः, द्वन्द्वे देवतातत्त्वानि तेषां भेदेन पार्थक्येन । ततोऽयमत्रार्थः- देवतातत्त्वभेदेन यतो दर्शनानां षडेव मूलभेदा भवेयुस्ततः षडेवात्र दर्शनानि वक्ष्यन्ते, न पुनरुत्तरभेदापेक्षयाधिकानीति । एतेन प्राक्तनश्लोके सर्वशब्दग्रहणेऽपि षडेवात्र दर्शनानि वक्तुं प्रतिज्ञातानि सन्तीति ज्ञापितं द्रष्टव्यम् ॥२॥
६ ३९. शंका - इस तरह जब अनेकों दर्शन अपने भेद-प्रभेदोंके परिवारके साथ संसार में प्रसिद्ध हैं । और उन सब अगणित दर्शनोंके देवता, तत्त्व तथा प्रमाणादिका वर्णन करना इस छोटे-से ग्रन्थ में कथमपि सम्भव नहीं है तब आचार्यने 'सर्वदर्शनोंका वाच्य अर्थ मेरे द्वारा कहा जाता है' यह असम्भव प्रतिज्ञा क्यों की ? इस प्रतिज्ञाका पूर्ण करना तो अंगुलोंसे आकाशको नापने तथा समुद्रके दोनों तटोंके रेत के कणोंकी गिनती करनेके समान अत्यन्त कठिन ही नहीं, असम्भव ही है ।
समाधान- आपकी शंका तो तब ठीक होती जब ग्रन्थकारने सब दर्शनोंके अवान्तर भेद-प्रभेदोंके कथन करने की प्रतिज्ञा को होती । पर ग्रन्थकारने स्वयं ही मूलभेदोंकी अपेक्षा ही सर्वदर्शनोंके कहने की प्रतिज्ञा की है, उत्तर भेद-प्रभेदों की अपेक्षासे नहीं । इसलिए कोई दोष या अनुपपत्ति नहीं है। मूल दर्शनोंका वर्णन वे अपनी प्रतिज्ञानुसार करेंगे ही। हमने स्वयं ही सर्व शब्दका व्याख्यान करते समय यह बात अत्यन्त स्पष्ट कर ही दी थी। यह तो आपकी स्मरणशक्तिका दोष है जो उसे भुला दिया || १ || ग्रन्थकार स्वयं भी इसी बात को कहते हैं
चूँकि देवता और तत्त्वोंके भेदकी अपेक्षा मूलदर्शन छह ही हैं। अतः यही छह मूलदर्शन इस ग्रन्थ में विद्वज्जनों-द्वारा ज्ञातव्य हैं ॥२॥
४०. प्रस्तुत ग्रन्थ में मूलभेदोंकी दृष्टिसे छह ही दर्शन विवक्षित हैं । यद्यपि अवान्तर भेदोंकी अपेक्षा दर्शनोंके अधिक भेद भी हो सकते हैं परन्तु परमार्थतः उनका इन्हीं छहों दर्शनों में अन्तर्भाव हो जाता है । देवता तथा तत्त्वोंके वर्गीकरणकी अपेक्षासे मूलदर्शनों की संख्या छह ही है न तो पांच और न सात ही । अतः विद्वज्जनोंको इस ग्रन्थ में छह ही मूलदर्शनोंका वर्णन मिलेगा, दर्शनों के उत्तरोत्तर भेद-प्रभेदोंका नहीं । प्रथम श्लोक में जो समस्त दर्शनोंके कहने की प्रतिज्ञा की गयी है उसका अभिप्राय भी छह मूल दर्शनोंके कथनका ही है। यह बात इस विवरण से सूचित हो जाती है ॥२॥
१. -धातुं शक्या म. २ ।
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