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________________ -का० १.६३४ ] अज्ञानवादः। २७ न पुनः केनापि धूर्तेन स्वयं विरचय प्रवर्तितः' इति कथमवसेयम्, अतीन्द्रिये विषये प्रमाणाभावात् । भवतु वा तस्यैवायमुपदेशस्तथापि तस्यायमर्थो नान्य इति न शक्यं प्रत्येतुम् । नानार्था हि शब्दा लोके प्रवर्तन्ते, तथावर्शनात् । ततोऽन्यथाप्यर्थ संभावनायां कथं विवक्षितार्थनियमनिश्चयः। छमस्थेन हि परचेतोवृत्तेरप्रत्यक्षत्वात् कथमिदं ज्ञायते-'एष सर्वज्ञस्याभिप्रायोऽनेन चाभिप्रायेणायं शब्दः प्रयुक्तो नाभिप्रायान्तरेण' इति । तदेवं दीर्घतरसंसारकारणत्वात् सम्यग्निश्चयाभावाच्च न ज्ञानं श्रेयः, कि त्वज्ञानमेवेति स्थितम्। ३४. ते चाजानिकाः सप्तषष्टिसंख्या अमुनोपायेर्ने प्रतिपत्तव्याः। इह जीवाजीवादीन पदार्थान् क्वचित् पट्टकादौ व्यवस्थाप्य पर्यन्त उत्पत्तिः स्थाप्यते। तेषां च जीवादीनांनवानां प्रत्येकमधः आदिमें महावीरके नामसे प्रचलित उपदेश निबद्ध हैं वे उपदेश महावीरने ही दिये थे या किसी धूर्तने स्वयं बनाकर उनके नामसे प्रचलित किये हैं ?' इसका निश्चय किस प्रकार किया जाये ? जो बात आंखोंके सामने नहीं है अतीन्द्रिय है उसको सिद्ध करनेवाला तो कोई प्रमाण ही नहीं मिलता। अथवा यह भी मान लिया जाये कि-भगवान महावीरने ही इन आचारांग आदिका उपदेश किया था, फिर भी 'इन शब्दोंका यही अर्थ है दूसरा नहीं' इसका निश्चय कौन कैसे करेगा? जगत्में एक ही शब्दके अनेक अर्थ देखे जाते हैं। इसलिए जो अर्थ आपको विवक्षित है “उससे विपरीत अर्थ यदि उन्हीं शब्दोंका निकलता है तब अर्थका नियम कैसे होगा ? 'भगवान् वर्धमानके चित्तमें इन शब्दोंका यही अर्थ था' यह तो अल्पज्ञानी हम लोग जान ही नहीं सकते। अतः 'सर्वज्ञका यह अभिप्राय है, इसी अभिप्रायसे उनने इन शब्दोंका प्रयोग किया है, दूसरे अभिप्रायसे नहीं यह जानना नितान्त असम्भव है। सारांश यह है कि यह ज्ञान ही अनेक झगड़ोंकी जड़ है। इसीसे ( अहंकारपूर्वक राग-द्वेष होकर ) अनन्त संसारकी वृद्धि होती है। और इसका सम्यग् निश्चय करना भी अत्यन्त कठिन है। इस अनर्थमूल ज्ञानसे कभी कल्याण नहीं हो सकता, अतः 'अज्ञान ही श्रेयःसाधक है' यही अन्तिम निष्कर्ष निकलता है। । ६३४. इन अज्ञानवादियोंके ६७ प्रकार इस तरह समझना चाहिए-किसी पट्टी आदिपर जीवादि नव पदार्थों को एक पंक्तिमें लिखकर अन्तमें दश स्थानपर 'उत्पत्ति' नामका पद लिखना १.-र्थभाव-भ. २। २. -तार्थे निश्चयः क.। ३. वाभि-म. २ ४. "ते चामी-जीवादयो नव पदार्थाः उत्पत्तिश्च दशमी, 'सत् असद् सदसत् अवक्तव्यः सदवक्तव्यः असदवक्तव्यः सदसदवक्तव्यः इत्येतैः सप्तभिः प्रकारः विज्ञातुं न शक्यन्ते, न च विज्ञातैः प्रयोजनमस्ति । भावना चेयम्-सन् जीव इति को वेत्ति । किंवा तेन ज्ञातेन । असन् जीव इति को जानाति । किंवा तेन ज्ञातेन । इत्यादि । एवमजीवादिष्वपि प्रत्येकं सप्त विकल्पाः। नवसप्तकाः त्रिषष्टिः । अमी चान्ये चत्वारः त्रिषष्टिमध्ये प्रक्षिप्यन्ते तद्यथा-सती भावोत्पत्तिरिति को जानाति । किं वाऽनया ज्ञातया । एवमसती सदसती अवक्तव्या भावोत्पत्तिरिति को वेत्ति । कि वानया ज्ञातयेति? शेषविकल्पत्रयमुत्पत्त्युत्तरकालं पदार्थावयवापेक्षमतोत्र न संभवतीति नोक्तम् । एतच्चतुष्टयप्रक्षेपात् सप्तषष्टिर्भवन्ति ।" -आचा. शी. ११।१४। नन्दि. मलय. पृ. २१७A | सूत्र. शी. १११ । स्था. अम. ॥४३४५ । "को जाण णवभावे सत्तमसत्तं दयं अवच्चमिदि । अवयणजुदसत्ततयं इदि भंगा होति तेसट्रो ।। को जाणइ सत्तचऊ भावं सुद्धं खु दोणिपंतिभवा । चत्तारि होति एवं अण्णाणीणं तु सत्तही॥-जीवादि नवपदार्थेषु एकैकस्य अस्त्यादिसप्तभङ्गेषु एकैकेन जीवोऽस्तीति को जानाति । जीवो नास्तीति को जानाति । इत्याद्यालापे कृते त्रिषष्टिर्भवन्ति । पुनः शुद्धपदार्थ इति लिखित्वा तदुपरि अस्ति नास्ति अस्तिनास्ति अवक्तव्य इति चतुष्कं लिखित्वा एतत्पङ्क्तिद्वयसंभवाः खलु भङ्गाः शुद्धपदार्थोऽस्तीति को जानीते । इत्यादयश्चत्वारो भवन्ति । एवं मिलित्वा अज्ञानवादाः सप्तषष्टिः।"-गो. कर्म.टी. गा.८८६-८७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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