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________________ २६ षड्दर्शनसमुच्चये [ का. १. ६ ३३दुपजायते' ज्ञानं तत् सम्यग्, नेतरत्, असर्वज्ञमूलत्वादिति चेत्, सत्यमेतत्; किं तु स एव सकलवस्तुस्तोमसाक्षात्कारी, न तु सौगतादिसंमतः सुगतादिरिति कथं प्रतीयते, तद्ग्राहकप्रमाणाभावादिति तदवस्थः संशयः। ननु यस्य दिवः समागत्य देवाः पूजाविकं कृतवन्तः, स एव वर्धमानः सर्वज्ञः, न शेषाः सुगतावय इति चेत्, न; वर्धमानस्य चिरातीतत्वेनेदानों तद्भावग्राहकप्रमाणाभावात् । संप्रदायादवसीयत इति चेत् । ननु सोऽपि संप्रदायो धूर्तपुरुषप्रवर्तितः, किं वा सत्यपुरुषप्रवर्तित इति कथमवगन्तव्यम्, प्रमाणाभावात् । न चाप्रमाणकं वयं प्रतिपत्तं क्षमाः। मा प्रापदतिप्रसङ्गः । अन्यच्च, मायाविनः स्वयमसर्वज्ञा अपि जगति स्वस्य सर्वज्ञभावं प्रचिकटयिषवस्तथाविधेन्द्रजालवशादर्शयन्ति देवानितस्ततः संचरतः स्वस्य पूजादिकं कुर्वतः, ततो देवागमदर्शनादपि कथं तस्य सर्वज्ञत्वनिश्चयः । तथा चाह जैन एव स्तुतिकारः समन्तभद्रः "देवाऽऽगम-नभोयान-चामरादिविभूतयः। मायाविष्वपि दृश्यन्ते नातस्त्वमसि नो महान् ॥१॥" [ आसमी. १११] .. ६ ३३. भवतु वा वर्धमानस्वामी सर्वज्ञः। तथापि तस्य सत्कोऽयमाचाराङ्गादिक उपदेशः भगवान् वर्धमानके उपदेशसे होनेवाला ज्ञान सम्यग्ज्ञान है, दूसरे मतोंका उपदेश तो असर्वज्ञोंने किया है, अतः उनके मतसे होनेवाला ज्ञान मिथ्या ज्ञान है।' तब मनमें सहज ही यह विकल्प आता है कि-वर्धमान ही सर्वज्ञ थे, वे ही समस्त वस्तुओंका साक्षात्कार करते थे, बौद्धादि मतवालोंके देव सुगत, कपिल आदि सर्वज्ञ नहीं थे' यह कैसे माना जाये ? वर्धमानकी सर्वज्ञता तथा सुगतादिकी असर्वज्ञताको ग्रहण करनेवाला कोई प्रमाण हो जब नहीं मिलता तब यह सन्देह और भी पुष्ट हो जाता है कि कौन सर्वज्ञ थे-वर्धमान या सुगतादि ?| 'स्वर्गसे देवता आकर वर्धमानकी पूजा करते थे उनके प्रातिहार्य थे इसलिए वर्धमान ही सर्वज्ञ थे, सुगतादि नहीं' यह तर्क तो बिलकुल लँगड़ा है; क्योंकि वर्धमानका निर्वाण हुए करीब २॥ हजार वर्ष बीत चुके हैं, 'उस समय देव आये थे या नहीं यही सन्दिग्ध है । देवोंकी बात जाने दीजिए 'वर्धमान हुए भी थे इसीको सिद्ध करनेवाला कोई प्रमाण आज नहीं मिलता।' 'यदि भगवान् वर्धमान न होते ती आजकल जो जैन सम्प्रदाय चल रहा है उसे किसने चलाया ? अतः इसी सम्प्रदाय प्रवर्तनके कारण उनका अस्तित्व और उनको सर्वज्ञता सिद्ध होती है' यह कहना भी असंगत है। क्योंकि-'यह सम्प्रदाय स्वयं वर्धमानने चलाया है या किसी धूर्तने ? इसीका निश्चय करना, साधक प्रमाणका अभाव होनेसे कठिन है। बिना प्रमाणके तो हम एक भी बात स्वीकार नहीं कर सकते । इस तरह इस चर्चामें अब अधिक कहनेकी आवश्यकता नहीं है। संसारमें मायावी लोग स्वयं असर्वज्ञ रहकर भी जगत्में अपनी सर्वज्ञताका ढिंढोरा पीटने के लिए नाना प्रकारसे इन्द्रजाल करके देवोंका आकाशसे आना-जाना, उनके द्वारा अपनी पूजा कराना आदि चमत्कार दिखाते हैं । इसलिए देवोंके आनेसे या उनके द्वारा पूजित होने मात्रसे सर्वज्ञताका निश्चय कैसे किया जा सकता है ? तुम्हारे जैनमतके ही स्तुतिकार आचार्य समन्तभद्रने स्वयं ही कहा है कि "देवोंका आगमन, आकाशमें विहार करना तथा चंवर-छत्र आदि विभूतियां मायावियोंमें भी देखी जाती हैं। इसलिए हे वीर ! तुम हम-जैसे परीक्षकोंपर अपनी महत्ता, इन देवागम-जैसो साधारण वस्तुओंसे नहीं जमा सकते। अर्थात् इन मायावी साधारण देवागम आदिसे तुम हमारे महान् पूज्य नहीं हो सकते ॥१॥" ३३. अथवा, 'वर्धमान स्वामीको सर्वज्ञ मान भी लिया जाये तब भी यह जो आचारांग १. -ते तत्स-भ. २ । २. –णकं प्रतिपत्तुं क्षमा वयं मा म. २ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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